Explainer Animal Film: 'अल्फ़ा मर्द' जो करता था औरतों पर हुकूमत, एनिमल में क्यों इस शब्द पर मच रहा बवाल?
Explainer Animal Film: इन दिनों हर तरफ फिल्म 'एनिमल' की हर तरफ चर्चा हो रही है, कहीं पर इस फिल्म की सफलता को लेकर चर्चा हो रही है तो कहीं पर फिल्म की आलोचना हो रही है.
Explainer Animal Film: एनिमल फिल्म खूब कमाई कर रही है, इसकी इतनी ज़्यादा आलोचना के बाद भी लोगों में फिल्म को लेकर काफी ज्यादा क्रेज देखने को मिल रहा है. किसी भी फिल्म को लेकर विवाद होना कोई नई बात नहीं है, इससे पहले भी कई बड़ी फिल्मों को लेकर विवाद बढ़ा है. कुछ दिन पहले ही रिलीज हुई 'आदिपुरुष', 'कबीर सिंह', 'पुष्पा' भी बहुत विवादों में रही है. वहीं एनिमल को लेकर भी विवाद बढ़ता जा रहा है. हाल ही में संसद में भी फिल्म की कहानी को लेकर सवाल उठाए गए है.
सुर्खियों में आया मामला
कांग्रेस की राज्यसभा सांसद रंजीत रंजन ने गुरुवार को अभिनेता रणबीर कपूर और बॉबी देओल की एक्शन थ्रिलर फिल्म 'एनिमल' की आलोचना की और कहा कि 'फिल्म में हिंसा और स्त्रीद्वेष को उचित ठहराया जाना शर्मनाक है.' राज्यसभा में रंजन ने कहा, 'सिनेमा समाज का दर्पण है, हम सभी फिल्में देखकर बड़े हुए हैं. सिनेमा का समाज में, खासकर युवाओं पर काफी प्रभाव है. आजकल कुछ फिल्में आ रही हैं, जैसे कबीर सिंह, पुष्पा और अब यह फिल्म, एनिमल जो हिंसा को बढ़ावा दे रही हैं.'
फिल्म को लेकर विवाद क्यों?
आमतौर पर कोई भी फिल्म मनोरंजन के लिहाज से बनाई जाती हैं लेकिन कुछ फिल्मों में दिखाए गए विचार हजम करने के काबिल नहीं होते हैं जिस वजह से वो चर्चा में आ जाती हैं. ऐसा ही कुछ हुआ है एनिमल के साथ. फिल्में मनोरंजन के साथ साथ सामाज को आईना दिखाने का भी काम करती हैं, इसीलिए फिल्मों को लोग देखकर समाज की सोच का अंदाजा लगाया जाता है. एनिमल को लेकर भी यही बात सामने आई है कि ये फिल्म पुरुष प्रधान है, इसमें धौंसवाली मर्दानगी को दिखाया गया है.
फिल्म की शुरुआत से समझिए क्या है मामला?
इस फ़िल्म का केंद्र हिंसा है, और हिंसा भी ऐसी कि हर तरफ खून, डेड बॉडी और गालियां. इसके साथ ही इसमें एक खास मुद्दा है जो कि महिलाओं को कमज़ोर दिखाता है. फिल्म की शुरुआत में हीरो (रणबीर कपूर) अपनी हिरोइन (रश्मिका मंदाना) को एक कहानी सुनाता है. इसकी शुरुआत होती है, जब रणबीर 'अल्फ़ा मेन' के बारे में बताते हैं कि वो कैसे होते थे- ताकतवर मर्द, जंगलों में घूंमकर शिकार करने वाले मर्द, वो मर्द बंदे होते थे. जब वो शिकार करके लाते तब उनकी औरतें घर पर खाना बनाती, बाक़ी सबको खिलाती थीं. इसका साथ ही वो ये भी चुनती थी कि कौन सा मर्द उनके बच्चे का पिता बनेगा और कौन उनकी हिफाजत करेगा. हीरो के मुताबिक, ये असली मर्द होते थे, वहीं इसके उलट एक तरह के मर्द और होते थे जो कमज़ोर होते थे.
कमज़ोर मर्दों को कैसे मिलती थीं औरतें?
नायक दो तरह के मर्दों के बारे में बताता है, जिसमें कमजोर मर्द भी शामिल थे. वो बताता है कि कैसे कमजोर मर्द के पास औरते आती थी? जो जानकारी वो देता है उसमें कविता लिखने वाले मर्दों को कमजोर माना जाता था, वो सिर्फ औरतों के लिए कविताएं लिखते उनको रिझाते थे. लेकिन जो जीवन के लिए असल काम होता था वो सिर्फ अल्फ़ा मर्द ही किया करते थे. यहां तक उनके मुताबिक, शारीरिक रूप से जो कमजोर होते थे वो असल मर्द नहीं होते और ना ही समाज के लिए वो किसी काम के होते हैं. इसके साथ ही वो कहता है कि इसिलिए समाज में ताकतवर लोग ही पैदा होने चाहिए.
इस तरह की बातें अब क्यों बताई जा रही हैं?
फिल्म की शुरुआत में जो ये पुरानी कहानी सुनाई जा रही है, अब सवाल ये उठता है कि अब इस समाज में इस कहानी को सुनाने का क्या मतलब बनता है? आलोचना इस बात पर है कि हीरो औरत को समझा रहा है कि उसको अब भी ऐसे ही मर्दों का चुनाव करना चाहिए? फिल्म की बात करें तो उसमें रणबीर की एक बड़ी बहन है, उसको स्कूल में कुछ लड़के परेशान करते हैं तो छोटा भाई अपनी बहन की रक्षा के लिए स्कूल में बंदूक लेकर आता है और क्लास में गोलियां बरसाता है. इसके साथ ही अपनी बहन की शादी को लेकर भी हीरो को कुछ अलग ही ख्याल रखता है.
धौंस जमाने वाले होते हैं अल्फ़ा मर्द?
जिस अल्फ़ा मर्द की बात हीरो कर रहा है उससे पता चलता है कि वो लोगों पर नियंत्रण करने वाले, या डराकर रखने वाले होते हैं. इस फिल्म में बी हीरो सबका रखवाला बनने की कोशिश में लगा रहता है. उसको अपनी बहन, पत्नि, पिता सबका रखवाला बनना है. वो अपनी बड़ी बहन की हिपाजत करना चाहता है, ये अच्छी बात है लेकिन क्या एक छोटे भाई को अपीन बड़ी बहन की हिफाजत के लिए स्कूल में गोलियां चलानी चाहिए?
औरतों की आजादी पर सवाल उठाती फिल्म?
फिल्म में जिस तरह के मर्दों की बात की गई है, या जो भी इसमें फिल्माया गया है उसमें साफ तौर पर देखा जा सकता है कि कैसे एक मर्द पूरे परिवार पर अपनी धौंस कायम करता है. इसके साथ ही वो जब चाहे जैसे चाहे किसी भी औरत के साथ संबंध बना सकता है. इसमें विवाद का मुद्दा ये है कि औरत को एक ऑब्जेक्ट के तौर पर क्यों दिखाया जा रहा है. हीरो अपनी पत्नि को आजादी तो देता है लेकिन वो उसकी डोर अपनी मर्जी से ढीली करता है.
हर तरफ दिख रही पितृसत्ता
फिल्म की कहानी पिता-पुत्र के रिश्ते पर आधारित है, लेकिन इसको एक कहानी के तौर पर देखा जाए तो कुछ गलत भी नहीं हैं, क्योंकि बहुत सी फिल्में ऐसी भी बनती हैं जो मां-बेटी पर आधारित होती हैं. मगर इसमें कहानी सिर्फ पिता-पुत्र पर ही खत्म नहीं होती है, इसमें एक किरदार और भी है जो अपना धर्म बदलकर कई बीवियां रखता है. मतलब ये दुनिया मर्दों की है और उनके चारों तरफ औरतें दिखती हैं जिसका कुछ खास वुजूद नजर नहीं आता है.
मनोरंजन के तौर पर ही ली जाए फिल्म
इन सब आलोचनाओं के इतर कुछ लोगों का ये भी कहना है कि मनोरंजन को मनोरंजन को तौर पर ही लेना चाहिए, अगर उसमें खामियां निकाली जाएंगी तो कुछ ला कुछ मिल जाएगा. लेकिन सवाल ये भी उठता है कि क्या मनोरंजन को समाज को बदलने के लिहाज से काम नहीं करना चाहिए? उसमें ऐसी चीजे दिखाई जाएं जो समाज में अच्छा बदलाव लाने का काम करें.