10 साल पुराना वाकया आज प्रासंगिक हो गया। दरअसल, राहुल गांधी को मानहानि मामले में सूरत की अदालत ने दो साल की सजा सुनाई है। हालांकि, कोर्ट से तुरंत उन्हें जमानत मिल गई और सजा को 30 दिन के लिए निलंबित कर दिया गया। कोर्ट के आदेश के 24 घंटे बाद ही राहुल की लोकसभा सदस्यता को रद्द कर दिया गया। सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या राहुल जेल जा सकते हैं? अयोग्यता के मुद्दे का उस अध्यादेश से क्या संबंध है, जो कभी लागू नहीं हो पाया और जिसे राहुल ने फाड़ने को कहा था? यह सब 2013 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले की वजह से हुआ है, जिससे बचने के लिए यूपीए सरकार के समय एक अध्यादेश आया था, जो अमल में आते-आते रह गया।
इसी अध्यादेश की कॉपी को राहुल ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में फाड़ने के लिए कहा था और विपक्षी आज भी अक्सर इनके इस कदम की आलोचना करते हैं। तारीख 27 सितंबर 2013, अजय माकन दिल्ली में प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे थे। बीच प्रेस कॉन्फ्रेंस में राहुल गांधी आ जाते हैं। तब कांग्रेस उपाध्यक्ष रहे राहुल कहते हैं, ''मैं यहां अपनी राय रखने आया हूं। इसके बाद मैं वापस अपने काम पर चला जाऊंगा।'' इसके बाद राहुल कहते हैं, ''मैंने माकन जी (अजय माकन) को फोन किया। उनसे पूछा क्या चल रहा है।
उन्होंने कहा- मैं यहां प्रेस से बातचीत करने जा रहा हूं। मैंने पूछा- क्या बात चल रही है। उन्होंने कहा- ऑर्डिनेंस के बारे में बात हो रही है। मैंने पूछा क्या? इसके बाद वे सफाई देने लगे। मैं आपको इस अध्यादेश के बारे में अपनी राय देना चाहता हूं। मेरी राय में इसे फाड़कर फेंक देना चाहिए।''बात 2013 की है। सुप्रीम कोर्ट ने लोक-प्रतिनिधि अधिनियम 1951 को लेकर ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। कोर्ट ने इस अधिनियम की धारा 8(4) को असंवैधानिक करार दे दिया था। इस प्रावधान के मुताबिक, आपराधिक मामले में (दो साल या उससे ज्यादा सजा के प्रावधान वाली धाराओं के तहत) दोषी करार किसी निर्वाचित प्रतिनिधि को उस सूरत में अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता था, अगर उसकी ओर से ऊपरी न्यायालय में अपील दायर कर दी गई हो। यानी धारा 8(4) दोषी सांसद, विधायक को अदालत के निर्णय के खिलाफ अपील लंबित होने के दौरान पद पर बने रहने की छूट प्रदान करती थी।
सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद से किसी भी कोर्ट में दोषी ठहराए जाते ही नेता की विधायकी-सांसदी चली जाती है। इसके साथ ही अगले छह साल के लिए वह व्यक्ति चुनाव लड़ने के अयोग्य हो जाता है। सदस्यता तुरंत खत्म होने के फैसले को पलटने के लिए मनमोहन सिंह सरकार एक अध्यादेश लेकर आई। इसी अध्यादेश को राहुल ने फाड़ने की बात की थी। सुप्रीम कोर्ट ने जुलाई 2013 में दोषी करार दिए विधायकों-सांसदों की अयोग्यता को लेकर अपना आदेश दिया। यह वही दौर था, जब राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव चारा घोटाले में फंसे हुए थे। दोषी पाए जाने पर उनकी सदस्यता पर भी खतरा था। तब के राज्यसभा सांसद राशिद मसूद पहले ही भ्रष्टाचार के एक मामले में दोषी ठहराए जा चुके थे। विपक्ष की तीखी आलोचना के बाद भी सितंबर 2013 में मनमोहन सरकार एक अध्यादेश लेकर आई।
अध्यादेश में कहा गया था कि मौजूदा सांसद या विधायक अगर किसी अदालत में दोषी करार दिए जाते हैं और अगर ऊंची अदालत में मामला विचाराधीन है तो सदस्यता नहीं जाएगी। हालांकि, इस दौरान वे सदन में वोट नहीं दे सकेंगे, न ही वेतन मिलेगा। राहुल ने इस अध्यादेश को "पूरी तरह से बकवास" करार दिया था और कहा था कि इसे "फाड़ कर फेंक दिया जाना चाहिए"। यही अध्यादेश अगर पास हो गया होता तो राहुल की लोकसभा सदस्यता नहीं जाती। यही अध्यादेश अगर पास हो गया होता तो सपा विधायक आजम खान, अब्दुल्ला आजम से लेकर भाजपा विधायक विक्रम सैनी तक की सदस्यता बरकरार रहती। अब राहुल गांधी को मलाल हो रहा होगा कि उन्होंने अपने पैर में खुद कुल्हाड़ी मार दी। हालांकि इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि राहुल गांधी जब जब जोश में आते हैं तो उनके द्वारा कुछ न कुछ गलत हो ही जाता है।
चाहे बयानबाजी की हो अथवा अध्यादेश फाड़ने की। सवाल यह भी उठता है कि आखिर जब अदालत का निर्णय राहुल गांधी के खिलाफ आया, तो कांग्रेस के नेता न्यायपालिका पर सवाल उठा रहे हैं...अपशब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं। ऐसे यह समझा जाए कि कांग्रेस का अदालत से भरोसा उठ गया है क्या? वहीं संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने कहा कि यह फैसला कानूनी है और आरोप लगाया कि कांग्रेस न्यायपालिका पर सवाल उठा रही है। उन्होंने कहा कि यह एक कानूनी फैसला है और राजनीतिक दल द्वारा लिया गया फैसला नहीं है। यह एक अदालत द्वारा लिया गया फैसला है। कांग्रेस को स्पष्ट करना चाहिए कि वे किसके खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। जाहिर है, इसका जवाब कांग्रेस नेता को देना चाहिए कि वह अपने को कानून से ऊपर क्यों मानते हैं। First Updated : Wednesday, 29 March 2023