AzadiKaAmritMahotsav: शेर-ए-असम, जिसने असम को पाकिस्तान में मिलाने की कोशिशें की थी नाकाम

आजादी की 75 वीं वर्षगांठ मे केवल 13 दिन शेष हैं. तैयारियां जोरों पर है. हमसभी देशवासियों को इस राष्ट्रीय उत्सव का बेसब्री से इंतजार रहता है. यह वो दिन है जब हमारा देश अग्रेजों के चंगुल से आजाद हुआ, जिसके लिए सैकड़ों देशवासियों ने अपनी कुर्बानियां दी. कई ने हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया, तो किसी ने अग्रेजों के सामने शीष न झुकाने की कसमें खाई. ऐसी सैकड़ो गाथाएं हैं जिन पर हर देशवासी को गर्व है.

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आजादी की 75वीं वर्षगांठ मे केवल 13 दिन शेष हैं. तैयारियां जोरों पर है. हम सभी देशवासियों को इस राष्ट्रीय उत्सव का बेसब्री से इंतजार रहता है. यह वो दिन है जब हमारा देश अंग्रेजों के चंगुल से आजाद हुआ, जिसके लिए सैकड़ों देशवासियों ने अपनी कुर्बानियां दी. कई ने हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया, तो किसी ने अंग्रेजों के सामने शीष न झुकाने की कसमें खाई. ऐसी सैंकड़ो गाथाएं हैं जिन पर हर देशवासी को गर्व है. जैसा कि हम सभी जानतें हैं आजादी की 74वीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य पर देश के प्रधानमंत्री ने लाल किले से 'आजादी का अमृत महोत्सव' अभियान शुरु किया था. उसी मुहिम को आगे बढ़ाते हुए जनभावना टाइम्स अपने पाठकों के लिए आजादी से जुड़ी गाथाओं को साझा कर रहा है. आइये इसी कड़ी में जानते हैं शेर-ए-असम की कहानी...

अंग्रेजों ने रची थी असम को पाकिस्तान में मिलाने की साजिश 

बात आजादी के एक साल पूर्व 1946 की है. देश में रानजीतिक घटनाक्रम काफी तेजी से बदल रहे थे. देशवासियों ने अंग्रेजों को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया था. जिसके बाद अंग्रेजी हुकूमत ने काई तरह की साजिशें रचनी चालू कर दी थी. मोहमम्द अली जिन्ना द्वारा भारत को दो हिस्सों में बांट कर पाकिस्तान बनाने की साजिश भी अंग्रेजों द्वारा ही रची गई थी. इसी तरह के कई और षड़यंत्र अंग्रेजों ने रचे. उनमें से एक था आज के असम को पाकिस्तान में मिलाना. आज के इस लेख में हम जानेंगे कि कैसे अंग्रेजों की यह चाल नाकाम हुई और इसमें किसका हाथ था। इस साजिश को नाकाम करने में कई लोगों की भूमिका रही, लेकिन इसमें सबसे प्रमुख नाम गोपीनाथ बोरदोलोई का है. उनके इस अभूतपूर्व योगदान के लिए लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल ने उन्हें शेर-ए-असम की उपाधि दी थी.

वकालत की नौकरी छोड़ आजादी के संग्राम में कूदे

असम के नौगांव जिले के राहा कस्बे में 6 जून, 1890 को जन्मे गोपीनाथ बोरदोलोई के पिता का नाम बुद्धेश्वर और माता का नाम प्राणेश्वरी था. गोपीनाथ के माता-पिता ने बचपन से ही उनकी शिक्षा में ख़ासा ध्यान दिया था. एमए की पढ़ाई करने के बाद गोपीनाथ ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से क़ानून की पढ़ाई भी पूरी की. देश में जब स्वतंत्रता आंदोलन तेज हो गया तो बोरदोलोई भी इससे अछूते नहीं रहे, और देश की आज़ादी की लड़ाई में कूद पड़े. असम को भारत से अलग करने के लिए जब अंग्रेजों ने अपनी चाल चलनी शुरू की तो बोरदोलोई ही थे जिन्होनें अंग्रेजों की मंशा भांपकर विरोध प्रदर्शन तेज कर दिए. बोरदोलोई गांधीजी की अहिंसा नीति से प्रभावित थे और उन्होंने यह ठान लिया कि बिना किसी हिंसा के वह इस लड़ाई को लड़ेंगे.

अंग्रेजों को दिया आर्थिक चोट

उन्होंने सबसे पहले अंग्रेजों द्वारा बेचे जा रहे विदेशी सामान का बहिष्कार करना शुरु किया और असम के लोगों से भी इसे न खरीदने की अपील की. इस कदम ने अंग्रेजों को बड़ा अर्थिक झटका दिया. बोरदोलोई के इस कदम ने असम के लोगों में एक नई उर्जा भर दी जिसके बाद उन्होंने विरोध और तेज कर दिया. बोरदोलोई ने कई रैलियों का आयोजन किया और लोगों को जागरुक कर अपना विरोध और भी मजबूत किया. कुछ ही दिनों बाद अग्रेजों को लगने लगा कि अगर इसे नहीं रोका गया तो हमारे खिलाफ विद्रोह और भी तेज हो सकता है. इसके बाद अंग्रेजी हुकूमत ने उन्हें और उनके साथियों को गिरफ्तार कर एक वर्ष कैद की सजा सुना दी.

जीवनभर रहे असम के लिए समर्पित

सजा समाप्त होने के बाद बोरदोलोई जब जेल से बाहर आए तब उन्होंने असम के लोगों की प्रगति के लिए काम और भी तेज कर दिए. वह असम के भविष्य के लिए काफी चिंतित थे, उनका मानना था कि शिक्षा के बिना किसी भी समाज की कल्पना करना संभव नहीं है. इसके लिए उन्होंने विश्वविद्यालय सहित कई कॉलेजों की स्थापना की. स्वास्थ के क्षेत्र में उन्होंने बड़ा योगदान देते हुए अस्पताल की स्थापना करवाई. वह एक स्वतंत्रता सेनानी के साथ-साथ समाज सुधारक भी थे. उन्हें असम के पहले मुख्यमंत्री के रुप में चुना गया. गोपीनाथ बोरदोलोई के अभूतपूर्व प्रयत्नों के कारण ही असम आज भारत का हिस्सा है. वह जब तक जीवित रहे असम और वहां के लोगों के लिए समर्पित रहे. First Updated : Tuesday, 02 August 2022