अखाड़े के मुलायम सियासत में भी पहलवान
अखाड़े के मुलायम सियासत में भी पहलवान
अखाड़े के महारथी समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव सियासत में भी माहिर पहलवान साबित हुए। भारतीय राजनीति में जमीन से जुड़े नेताओं की जब भी बात होगी, मुलायम सिंह यादव की चर्चा जरूर होगी। उनका रहन-सहन साधारण था लेकिन सियासी दांव-पेच में उनका कोई सानी नहीं था। मुश्किल हालात में धुर विरोधियों को भी साध लेने वाले मुलायम सिंह के कई दशकों का कामयाब सफर उनकी कड़ी मेहनत, दूरदर्शी सोच और सियासी समझ का ही नतीजा था।
मुलायम सिंह का जीवन सफर सबसे पहले पहलवानी,उसके बाद टीचिंग और फिर राजनीति में धमाकेदार एंट्री से शुरू होता है। इसमें कोई दो राय नहीं कि बाद में समय के साथ सियासत के भी बड़े अखाड़ेबाज बन गए। उन्होंने विरोधियों को चित भी किया। यह भी सच है कि उनकी सियासी और निजी जिंदगी आसान नहीं थी, पर लड़ते रहे। कभी हार नहीं मानी। अपने नाम के मुताबिक मुलायम उर्फ नेताजी काफी सरल और सौम्य स्वभाव के राजनेता थे। दशकों तक राजनीतिक दांव-पेंच के पुरोधा और विपक्ष की सियासत की धुरी रहे समाजवादी पार्टी (सपा) संस्थापक मुलायम सिंह यादव कभी सियासी फलक से ओझल नहीं हुए। उन्होंने अपने राजनीतिक सपर में पिछड़ी जातियों और अल्पसंख्यकों के हित की अगुवाई कर अपनी पुख्ता राजनीतिक जमीन तैयार की। यूपी की राजनीति जिस धर्म और जाति की प्रयोगशाला से होकर गुजरी उसके एक कर्ताधर्ता मुलायम सिंह भी रहे। एक संघर्षशील और जुझारू नेता के तौर पर अपनी पहचान बनाने वाले यादव के बारे में उनके समर्थक अक्सर कहते थे, ‘नेताजी संसद में होते हैं या सड़क पर।’ यह लोगों से उनके जुड़ाव के साथ-साथ उनके राष्ट्रीय कद की गवाही देता है। मुलायम सिंह मुलायम ही नहीं कठोर भी थे। इसे एक वाक्या से समझिए। बात 26 जून 1960 की है। मैनपुरी के करहल का जैन इंटर कॉलेज के कैंपस में कवि सम्मेलन चल रहा था। लेकिन एक पुलिस इंस्पेक्टर ने कवि को डांटते हुए कहा कि आप सरकार के खिलाफ कविता नहीं पढ़ सकते। मंच पर बहस हो ही रही थी कि दर्शकों के बीच बैठा 21 साल का पहलवान दौड़ते हुए मंच पर पहुंचा। 10 सेकेंड में उस नौजवान ने इंस्पेक्टर को उठाकर मंच पर पटक दिया। ये नौजवान कोई और नहीं बल्कि मुलायम सिंह यादव थे। मुलायम सिंह यादव राजनीति शास्त्र में पोस्ट ग्रेजुएशन की पढ़ाई करने के बाद राजनीति में आए थे। इसके बाद उन्होंने अपना दल बनाया। एक दो बार नहीं बल्कि यूपी में तीन बार यूपी की सत्ता संभाली। 1989 में लोकदल से मुलायम सिंह पहली बार भारतीय जनता पार्टी के सहयोग से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने।
90 का दौर शुरू होते-होते देशभर में मंडल-कमंडल की लड़ाई शुरू हो गई। ऐसे में 1990 में विश्व हिंदू परिषद और बजरंग दल के कार्यकर्ताओं ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद को गिराने के लिए कारसेवा की। 30 अक्टूबर 1990 को कारसेवकों की भीड़ बेकाबू हो गई। कारसेवक पुलिस बैरिकेडिंग तोड़ मस्जिद की ओर बढ़ रहे थे। मुलायम सिंह ने सख्त फैसला लेते हुए प्रशासन को गोली चलाने का आदेश दिया। पुलिस की गोलियों से 6 कारसेवकों की मौत हो गई। इसके दो दिन बाद फिर 2 नवंबर 1990 को हजारों कारसेवक हनुमान गढ़ी के करीब पहुंच गए, मुलायम के आदेश पर पुलिस को एक बार फिर गोली चलानी पड़ी, जिसमें करीब एक दर्जन कारसेवकों की मौत हो गई। कारसेवकों पर गोली चलवाने के फैसले ने मुलायम को हिंदू विरोधी बना दिया। वहीं विरोधियों ने उन्हें ‘मुल्ला मुलायम’बना दिया। हालांकि, बाद में मुलायम ने कहा था कि ये फैसला कठिन था। वे समाजवाद के बड़े नेता डाक्टर राम मनोहर लोहिया के अनुनायी थे।हालांकि वे लोहिया के सिद्धांतों और प्लान को लागू करना चाहते थे लेकिन इसमें सफल नहीं हो पाए। वर्ष 1993 में मुलायम सिंह यादव और कांशीराम आपस में मिले तो भाजपा का विजय रथ रोकने में कामयाबी मिली थी। मुलायम सिंह जोड़ तोड़ की राजनीति में महारत हासिल कर ली और तब के बड़े दलित नेता बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम को साथ लाकर भाजपा को पटखनी दी। मुलायम-कांशीराम के बीच समझौते के बाद सपा चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनी थी। उत्तर प्रदेश में नेताजी के नाम से प्रसिद्ध हुए मुलायम सिंह यादव को विनम्र श्रद्धांजलि।