राज्यपाल और राष्ट्रपति की मंजूरी के बिना 10 विधेयक बने कानून, तमिलनाडु सरकार ने जारी किया नोटिफिकेशन
भारत के संविधान के तहत राज्य विधानमंडल द्वारा विधेयक पारित किया जाता है और फिर राज्यपाल को भेजा जाता है. राज्यपाल निम्नलिखित में से कोई भी कार्य कर सकते हैं. स्वीकृति देकर इसे अधिनियम बना सकते हैं, स्वीकृति रोक सकते हैं; विधेयक को पुनर्विचार के लिए वापस कर सकते हैं या राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रख सकते हैं.

तमिलनाडु सरकार ने पहली बार ऐतिहासिक रूप से राज्यपाल या राष्ट्रपति की मंजूरी के बिना 10 कानूनों को नोटिफाई किया है. यह कदम हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद उठाया गया है. 11 अप्रैल 2025 को तमिलनाडु सरकार ने आधिकारिक तौर पर 10 कानूनों को नोटिफाई किया है. इन अधिनियमों को पहले राज्य विधानसभा द्वारा पारित किया गया था और राज्यपाल आरएन रवि द्वारा स्वीकृति रोके जाने के बाद एक विशेष सत्र में पुनः अपनाया गया था. बाद में विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेज दिया गया था.
इस सप्ताह सर्वोच्च अदालत ने राज्यपाल द्वारा अनुमति न देने को "अवैध" करार दिया, तथा कहा कि अनुमति न देने के बाद वह विधेयक को राज्यपाल के लिए सुरक्षित नहीं रख सकते. जस्टिस एस बी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन की पीठ ने आदेश दिया, "...ये विधेयक उसी तारीख से स्वीकृत माने जाएंगे, जिस दिन इन्हें दोबारा प्रस्तुत किया गया था...", उन्होंने कहा कि यदि राज्यपाल ने पहले ही सहमति नहीं दी है और उसके बाद इसे दोबारा भेजा गया है, तो वे राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयक को सुरक्षित नहीं रख सकते. मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने "ऐतिहासिक फैसले" की सराहना की और कहा, "यह सभी भारतीय राज्यों के लिए एक बड़ी जीत है."
एक विधेयक कानून कैसे बनता है?
भारत के संविधान के तहत राज्य विधानमंडल द्वारा विधेयक पारित किया जाता है और फिर राज्यपाल को भेजा जाता है. राज्यपाल निम्नलिखित में से कोई भी कार्य कर सकते हैं. स्वीकृति देकर इसे अधिनियम बना सकते हैं, स्वीकृति रोक सकते हैं; विधेयक को पुनर्विचार के लिए वापस कर सकते हैं या राष्ट्रपति के विचार के लिए सुरक्षित रख सकते हैं. हालांकि, यदि विधानमंडल किसी लौटाए गए विधेयक को, परिवर्तनों के साथ या बिना, फिर से पारित करता है, तो राज्यपाल को स्वीकृति देनी चाहिए और उसे फिर से सुरक्षित नहीं रख सकते.
विशेष मामलों में विधेयक को राष्ट्रपति के पास स्वीकृति के लिए भेजा जाना चाहिए. हालांकि, तमिलनाडु के मामले में राज्यपाल ने मंजूरी नहीं दी और फिर पुनः पारित विधेयक को गलत तरीके से राष्ट्रपति के पास भेज दिया, जिससे कानूनी चुनौती उत्पन्न हो गई.
तमिलनाडु की अधिसूचना
तमिलनाडु सरकार के गजट असाधारण में सरकार के विधि विभाग द्वारा औपचारिक अधिसूचना शामिल थी. भारतीय इतिहास में यह पहली बार हुआ है कि राज्यपाल या राष्ट्रपति की औपचारिक स्वीकृति के बिना कोई अधिनियम प्रभावी हुआ है. सर्वोच्च अदालत के फैसले ने राज्य विधानमंडल के अधिकार को प्रभावी रूप से मान्यता दी और राज्यपाल द्वारा संवैधानिक प्रक्रिया में किसी भी तरह की विवेकाधीन देरी को रोक दिया. सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल 2025 को अपने फैसले में राज्यपाल द्वारा विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजने की कार्रवाई को असंवैधानिक और संविधान के अनुच्छेद 200 का उल्लंघन बताया.
स्लाटिन को सुप्रीम कोर्ट से बड़ी राहत
नोटिफिकेशन का एक प्रमुख पहलू तमिलनाडु विश्वविद्यालय कानून (द्वितीय संशोधन) विधेयक, 2022 पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सरकार का संदर्भ है. अदालत ने माना कि राज्यपाल द्वारा विधेयक को सुरक्षित रखने के बाद राष्ट्रपति द्वारा की गई सभी कार्रवाइयां कानूनी रूप से अमान्य थीं और यह माना जाएगा कि विधेयक को राज्यपाल की सहमति उस तारीख को प्राप्त हो गई है जिस दिन इसे उनके समक्ष पुनः प्रस्तुत किया गया था.
अधिसूचित अधिनियमों में तमिलनाडु मत्स्य विश्वविद्यालय (संशोधन) अधिनियम 2020 शामिल है, जो विश्वविद्यालय का नाम बदलकर तमिलनाडु डॉ जे जयललिता मत्स्य विश्वविद्यालय कर देता है. अधिसूचित कई अधिनियम राज्य संचालित विश्वविद्यालयों में कुलपतियों की नियुक्ति का अधिकार राज्यपाल से राज्य सरकार को हस्तांतरित करते हैं.
कानूनी लड़ाई कैसे शुरू हुई?
मुख्य मुद्दा 2022 में शुरू हुआ, जब डीएमके सरकार ने कुलपति नियुक्तियों पर खुद को अधिकार देने के लिए एक विधेयक पारित किया, जो परंपरागत रूप से राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में था. राज्यपाल ने खोज समितियों में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के प्रतिनिधित्व की आवश्यकता का हवाला देते हुए इसका विरोध किया. समय के साथ, विश्वविद्यालय प्रशासन और नियुक्तियों से संबंधित कई विधेयक बिना स्वीकृति के ढेर हो गए.
सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
राज्य ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. कोर्ट ने फैसला सुनाया कि राज्यपाल द्वारा राष्ट्रपति को भेजा गया मामला कानूनी रूप से त्रुटिपूर्ण था और उसके बाद उठाए गए ऐसे सभी कदम "नॉन एस्ट" यानी कानूनी रूप से अस्तित्वहीन थे. जस्टिस जेबी पारदीवाला और आर महादेवन की अगुवाई वाली पीठ ने विधेयकों को राष्ट्रपति के पास भेजने के राज्यपाल के कदम को संविधान के खिलाफ बताया.