Full story of Article 370 : सुप्रीम कोर्ट आज जम्मू-कश्मीर में धारा 370 हटाने के खिलाफ दायर याचिका मामले में फैसला सुनाएगा. यह मामला अदालत में 2019 से चल रहा है. सुप्रीम कोर्ट ने इस साल 5 सितंबर को इस मामले पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था. भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी वाई चंद्रचूड़ ने बेंच की अध्यक्षता की, जिसमें कोर्ट के चार अन्य सबसे सीनियर जज- जस्टिस एसके कौल, संजीव खन्ना, बीआर गवई और सूर्यकांत भी शामिल रहे. बता दें कि अगस्त 2019 में जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम (J&K Reorganisation Act 2019) के तहत सूबे में कई सालों से लागू आर्टिकल 370 को खत्म कर दिया गया था. इसी के साथ ही जम्मू-कश्मीर राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांट दिया गया था. केंद्र सरकार के इस कदम को चुनौती देते हुए 22 याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई थीं. इन पर सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट आज फैसला सुनाने जा रहा है. जम्मू-कश्मीर के विलय से लेकर यहां आर्टिकल 370 लागू करने और उसको हटाने तक की कहानी को हम संक्षेप में एक टाइम लाइम के द्वारा आपको बता रहे हैं. इसके पहले हम अनुच्छेद 370 के बारे में जानते हैं.
भारत के संविधान में 17 अक्तूबर, 1949 को अनुच्छेद 370 को जोड़ा गया था, जो राज्य को विशेष दर्जा देता है. यह जम्मू-कश्मीर को भारत के संविधान से अलग रखता था. इसके तहत राज्य सरकार को अपना संविधान बनाने का अधिकार था. साथ ही संसद को अगर राज्य में कोई कानून लाना है तो इसके लिए यहां की सरकार की मंजूरी लेनी होती थी. जम्मू-स कश्मीर में जब तक धारा 370 लागू थी यहां का राष्ट्रीय ध्वज भी अलग था और यहां के लोगों के लिए भारत के राष्ट्रीय ध्वज का सम्मान करना जरूरी नहीं था.
भारत सरकार ने 5 अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाकर विशेष राज्य के दर्जे को खत्म कर दिया था. जम्मू और कश्मीर को प्रदेश और लद्दाख को एक अलग केंद्र शासित प्रदेश बना दिया.
अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा मिला था. इसकी वजह से यहां संविधान की धारा 356 लागू नहीं होती थी और राष्ट्रपति के पास राज्य के संविधान को बर्खास्त करने का भी अधिकार नहीं था. इसकी वजह से कश्मीर में आरटीआई (RTI) और सीएजी (CAG) जैसे कानून लागू नहीं होते थे. यहां के नागरिकों के पास दौहरी नागरिकता होती थी. साथ ही अलग राष्ट्र ध्वज भी था.
एससी ऑब्जर्वर वेबसाइट के अनुसार 26 अक्टूबर 1947 को जम्मू और कश्मीर के आखिरी शासक महाराजा हरि सिंह ने भारत में शामिल होने के लिए विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए थे. महाराजा हरि सिंह ने संसद की ओर से तीन विषयों पर शासन किए जाने पर सहमत हुए थे और संघ की शक्तियों को विदेशी मामलों, रक्षा और संचार तक सीमित कर दिया था. हालांकि यहां की बहुसंख्यक आबादी मुस्लिम थी और लोगों को भावना पाकिस्तान के साथ जाने की थी इसलिए यहां लोगों को कई तरह की सहूलियतें दी गई थीं. अनुच्छेद 370 इसीलिए यहां पर लागू की गई थी.
26 जनवरी 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ था. इसके अनुच्छेद 370 में तीन व्यापक रूपरेखाएं निर्धारित की गई थीं. अनुच्छेद 370 में कहा गया था कि भारत अपनी सरकार की सहमति के बिना विलय पत्र से निर्धारित दायरे के बाहर जम्मू-कश्मीर में कानून नहीं बनाएगा. इसमें कहा गया कि भारत को राज्यों का संघ घोषित करने वाले अनुच्छेद 1 और अनुच्छेद 370 को छोड़कर संविधान का कोई भी हिस्सा जम्मू और कश्मीर पर लागू नहीं होगा. भारत के राष्ट्रपति संविधान के किसी भी प्रावधान को 'संशोधनों' या 'अपवादों' के साथ जम्मू-कश्मीर में लागू कर सकते हैं लेकिन इसमें राज्य सरकार के साथ परामर्श करना होगा. इसमें कहा गया कि अनुच्छेद 370 को तब तक संशोधित या निरस्त नहीं किया जा सकता जब तक कि जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा इस पर सहमति न दे दे.
26 जनवरी 1950 को तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने अनुच्छेद 370 के तहत अपना पहला आदेश, संविधान (जम्मू और कश्मीर के लिए आवेदन) आदेश, 1950 जारी किया था, जिसमें संसद की ओर से जम्मू-कश्मीर में प्रयोग की जाने वाली शक्तियों का दायरा और पूर्ण सीमा स्पष्ट की गई थी.
जम्मू-कश्मीर में 31 अक्टूबर, 1951 को 75 सदस्यीय जम्मू-कश्मीर संविधान सभा का गठन हुआ. सभी सदस्य श्रीनगर में एकत्र हुए थे. सभी सदस्य जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व वाली नेशनल कॉन्फ्रेंस पार्टी से थे. उनका उद्देश्य जम्मू-कश्मीर के लिए एक संविधान का मसौदा तैयार करना था.
17 नवंबर 1956 को जम्मू-कश्मीर में अपना संविधान लागू किया गया. 'जम्मू और कश्मीर राज्य भारत संघ का अभिन्न अंग है और रहेगा'. उसी दिन दोपहर 12 बजे जम्मू-कश्मीर की संविधान सभा को भंग कर दिया गया था क्योंकि उसे इसी कार्य के लिए गठित किया गया था. संविधान सभा के अध्यक्ष गुलाम मोहम्मद सादिक ने घोषणा की थी, ''आज यह ऐतिहासिक सत्र समाप्त होता है और इसके साथ ही संविधान सभा भंग होती है.
1962 में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि राष्ट्रपति के पास जम्मू-कश्मीर में संवैधानिक प्रावधानों में संशोधन की व्यापक शक्तियां हैं. पूरनलाल लखनपाल बनाम भारत के राष्ट्रपति मामले में एक राष्ट्रपति आदेश ने जम्मू-कश्मीर को केवल अप्रत्यक्ष चुनावों के माध्यम से लोकसभा में प्रतिनिधित्व करने की अनुमति दी. आदेश ने अनुच्छेद 81 के अनुप्रयोग को संशोधित किया जो जम्मू-कश्मीर को बाहर रखने के लिए लोकसभा की संरचना से संबंधित है. याचिकाकर्ताओं ने यह कहते हुए राष्ट्रपति आदेश को चुनौती दी कि राष्ट्रपति संवैधानिक प्रावधानों में केवल मामूली संशोधन कर सकते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के आदेश को बरकरार रखते हुए कहा कि अनुच्छेद 370 में 'संशोधन' शब्द की व्यापक रूप से व्याख्या की जानी चाहिए, जिसमें एक संशोधन भी शामिल किया जाना चाहिए. कोर्ट ने फैसला सुनाया कि 'संशोधन' शब्द को अनुच्छेद 370 के संदर्भ में 'सबसे व्यापक संभव आयाम' दिया जाना चाहिए.
साल 1972 में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि राष्ट्रपति अनुच्छेद 370 के माध्यम से कुछ शब्दों की व्याख्या में संशोधन कर सकते हैं. मकबूल दमनू बनाम जम्मू-कश्मीर राज्य के मामले में राष्ट्रपति ने 'सदर-ए-रियासत' का अर्थ बदलकर 'राज्यपाल' करने के लिए संविधान के व्याख्या खंड अनुच्छेद 367 को संशोधित करने का आदेश जारी किया. याचिकाकर्ताओं ने इस आदेश को यह तर्क देते हुए चुनौती दी कि इसमें संविधान सभा की सिफारिश का अभाव है, जो पहले ही भंग हो चुकी है. सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के आदेशों की वैधता को बरकरार रखा. कोर्ट ने संशोधन को केवल एक स्पष्टीकरण के रूप में देखा क्योंकि 'सदर-ए-रियासत' का कार्यालय अब अस्तित्व में नहीं था.
2016 में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि संविधान सभा की सिफारिश के बाद ही अनुच्छेद 370 खत्म होगा. भारतीय स्टेट बैंक बनाम संतोष गुप्ता मामले में सुप्रीम कोर्ट ने सिक्योरिटाइजेशन एंड रिकंस्ट्रक्शन ऑफ फाइनेंशियल एसेट्स एंड एनफोर्समेंट ऑफ सिक्योरिटी इंटरेस्ट एक्ट 2002 के खिलाफ एक चुनौती को संबोधित किया. याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि यह अधिनियम जम्मू एंड कश्मीर ट्रांसफर ऑफ प्रॉपर्टी एक्ट, 1920 से टकराता है, जो जम्मू-कश्मीर के लिए विशिष्ट कानून है. सुप्रीम कोर्ट ने संघ के कानून को बरकरार रखा.
इस साल बीजेपी ने पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (PDP) से अपना समर्थन वापस ले लिया. इसके बाद जम्मू-कश्मीर में राज्यपाल शासन लागू कर दिया गया. जम्मू-कश्मीर के संविधान के अनुच्छेद 92 के तहत राज्यपाल शासन को छह महीने से ज्यादा नहीं बढ़ाया जा सकता है. परिणामस्वरूप 19 दिसंबर 2018 को राज्यपाल शासन समाप्त हो गया.
19 दिसंबर 2018 को तत्कालीन राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगाने की उद्घोषणा की. यह जून 2018 में लगाए गए राज्यपाल शासन के तुरंत बाद आया था. इस उद्घोषणा को दिसंबर 2018 और जनवरी 2019 में संसद के दोनों सदनों की ओर से मंजूरी दी गई थी. उद्घोषणा के मुताबिक, विधानसभा और राज्यपाल का स्थान केंद्रीय संसद और राष्ट्रपति ने ले लिया.
जम्मू-कश्मीर पर राष्ट्रपति शासन 2 जुलाई 2019 को समाप्त होने की उम्मीद थी लेकिन केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 3 जुलाई 2019 से इसे छह महीने के लिए बढ़ा दिया. राष्ट्रपति शासन को बढ़ाने का निर्णय जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल की ओर से तैयार की गई एक रिपोर्ट पर आधारित था, जिसमें कहा गया था कि राज्य में मौजूदा स्थिति के लिए राष्ट्रपति शासन को आगे जारी रखने की आवश्यकता है.
5 अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 विधेयक को गृह मंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में पेश किया और इसे उसी दिन पारित कर दिया गया था. फिर इसे 6 अगस्त 2019 को लोकसभा की ओर से पारित कर दिया गया और 9 अगस्त 2019 को इसे राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई. जिसके बाद जम्मू-कश्मीर को दिया गया विशेष दर्जा हट गया.
संसद ने जिस जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम, 2019 को पारित किया गया था, उसमें जम्मू-कश्मीर राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों- 'जम्मू और कश्मीर' और 'लद्दाख' में विभाजित किया गया. इसमें निर्णय लिया गया कि केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में एक विधानसभा होगी, जबकि लद्दाख में नहीं होगी. केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा था कि पुनर्गठन से केंद्र शासित प्रदेश में पर्यटन, विकास और उद्योगों को बढ़ावा मिलेगा.
28 अगस्त 2019 को पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई, पूर्व चीफ जस्टिस एसए बोबडे और जस्टिस अब्दुल नजीर की अगुवाई वाली 3 न्यायाधीशों की बेंच राष्ट्रपति के आदेश की संवैधानिकता पर दलीलें सुनना शुरू किया. दो दिनों की बहस के बाद बेंच ने मामले को आगे के विचार के लिए संविधान पीठ के पास भेजना जरूरी समझा.
शाह फैसल बनाम भारत संघ मामले में पूर्व चीफ जस्टिस एनवी रमण के नेतृत्व वाली 5 न्यायाधीशों की पीठ (जिसमें जस्टिस एसके कौल, आर सुभाष रेड्डी, बीआर गवई और सूर्यकांत शामिल थे) ने मामले को बड़ी बेंच को सौंपने से इनकार कर दिया. याचिकाकर्ताओं ने कहा कि प्रेमनाथ कौल, संपत प्रकाश और मकबूल दमनू के मामलों के फैसलों के बीच विरोधाभास मौजूद है.
3 जुलाई 2023 को सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 370 को चुनौती देने वाली याचिकाओं को चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली नई संविधान पीठ को सौंप दिया, जिसमें जस्टिस एसके कौल, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस सूर्यकांत शामिल हैं. सिंगल पेज के नोटिफिकेशन में संकेत दिया गया कि नई संविधान पीठ 11 जुलाई 2023 को आगे के निर्देशों के लिए मामले पर सुनवाई करेगी. नई बेंच में पूर्व मुख्य न्यायाधीश एनवी रमण और जस्टिस सुभाष रेड्डी की जगह चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस संजीव खन्ना को नियुक्त किया गया. 23 याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए आज चीफ जस्टिस समेतच पांच सदस्यीय बेंच ने फैसला सुनाया है. First Updated : Monday, 11 December 2023