Explainer : नेत्रहीनों के मसीहा कहलाएं लुई ब्रेल, बचपन में गई आविष्कार बनाते समय आंखों की रोशनी, मरने के बाद मिला सम्मान
Explainer : लुई ब्रेल ने आज के दिन दृश्चिहीनों के लिए ऐसे सिस्टम का आविष्कार किया. जिसकी मदद से दृष्टिहीन बिना मदद लिए हुए पढ़ और लिख सकता है. इस आविष्कार को ब्रेल लिपि के नाम से जाना गया है.
हाइलाइट
- 16 साल में मिली मान्यता, मरने के बाद मिला सम्मान.
- ब्रेल लिपि विकसित करने में लगा 8 साल का समय.
Explainer: संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 6 नवंबर 2018 को एक प्रस्ताव पारित किया गया था. जिसके बाद हर साल 4 जनवरी को ब्रेल लिपि के जनक लुई ब्रेल के जन्मदिन को विश्व ब्रेल दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया था. पहली बार 4 जनवरी 2019 को विश्व ब्रेल दिवस मनाया गया. लुई ब्रेल ये नाम फ्रांस के उस शिक्षाविद का है जिसकी बचपन में आखों की रोशनी चली गई थी, लेकिन फिर से उसने हार नहीं मानी और एक ऐसी लिपि तैयार की जो नेत्रहीनों के लिए वरदान बनी.
8 साल तक जीना पड़ा दृष्टिहीन का जीवन
लुई ब्रेल का जन्म 4 जनवरी 1809 में फ्रांस के छोटे से ग्राम कुप्रे में एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था. इनके पिता साइमन रेले ब्रेल शाही घोडों के लिए काठी और जीन बनाने का कार्य किया करते थे, लुई जब तीन साल के थे, तो वह घोड़ों के लिए काठी और जीन बनाने के औजारों से खेल रहे थे. एक दिन काठी के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला चाकू अचानक उधल कर उनकी आंख में जा लगा जिससे काफी चोट लग गई. लापरवाही में इलाज नहीं हुआ जिसके बाद वह 8 वर्ष तक दृष्टिहीन का जीवन व्यतित किया.
ब्रेल लिपि विकसित करने में लगा 8 साल का समय
नेत्रहीन होने के बाद लुईस को नेत्रहीन बच्चों वाले स्कूल में दाखिला मिल गया था, जब वे 12 साल के थे, तब उन्हें पता चला कि सेना के लिए एक खास साइफर कोड बना है, जिससे अंधेरे में भी मैसेज पढ़े जा सकते हैं, इसके बाद उन्हें नेत्रहीनों के लिए ब्रेल लिपि विकसित करने का आइडिया आया. 8 सालों की कड़ी मेहनत और तमाम संशोधनों के बाद लुई ब्रेल ने 6 बिंदुओं पर आधारित लिपि को तैयार किया. लेकिन कुछ सालों तक मान्यता नहीं मिली थी.
16 साल में मिली मान्यता, मरने के बाद मिला सम्मान
ब्रेल लिपि को मान्यता उनकी मौत के करीब 16 साल बाद मिली, 6 जनवरी 1552 में 43 साल की उम्र में ही उनका निधन हो गया था और 1868 में ब्रेल को आधिकारिक रूप से मान्यता मिली, उनकी मौत के करीब 100 साल बाद उन्हें सम्मान मिला. उसके बाद उनके गांव में दफनाए गए उनके पार्थिव शरीर के अवषेश पूरे राजकीय सम्मान के साथ बाहर निकाला गया. सेना और स्थानीय प्रशासन ने उन्हें नजरअंदाज करने के लिए माफी मांगी और राष्ट्रीय ध्वज के साथ उनका सम्मान अंतिम संस्कार किया.