Explainer : अदालतों में कैसे शुरू हुई गीता पर हाथ रखकर शपथ लेने की परंपरा, बाद में इसे क्यों बंद कर दिया गया
हिंदी फिल्मों में आपने अदालतों की सुनवाई का दृश्य देखा होगा. इसमें कोर्ट के कठघरे में आने वाले वादी-प्रतिवादी और गवाहों से गीता पर हाथ रखवा कर कसम खिलावाई जाती थी. हमारे मन में कई बार सवाल उठता है कि आखिर अदालतों में ऐसा क्यों होता है और कब से हो रहा है. आज हम इसी के बारे में जानेंगे.
"मैं गीता पर हाथ रखकर कसम खाता हूं/खाती हूं, जो भी बोलूंगा/ बोलूंगी,
सच बोलूंगा/ बोलूंगी. इसके सिवाय कुछ नहीं बोलूंगा/बोलूंगी"
हिंदी फिल्मों में आपने अदालतों की सुनवाई का दृश्य देखा होगा. इसमें कोर्ट के कठघरे में आने वाले वादी-प्रतिवादी और गवाहों से गीता पर हाथ रखवा कर कसम खिलावाई जाती थी. इसके बाद वादी- प्रतिवादी या गवाह से वकील सवाल करते थे. ऐसे में हमारे मन में कई बार सवाल उठता है कि आखिर अदालतों में ऐसा क्यों और कब से किया जाता था. क्या आपको मालूम है अदालतों में गीता के जरिए सच बोलने की शपथ लेने का काम मुगलों ने 18वीं सदी में शुरू किया था. लेकिन अब भारत की किसी भी अदालत में भगवत गीता के जरिए सच की शपथ दिलाने की परंपरा खत्म हो चुकी है. साल 1969 में आखिरी बार भारतीय अदालतों में गीता का इस्तेमाल सच बोलने के लिए शपथ दिलाने के लिए किया गया था.
यह परंपरा क्यों प्रचलित थी?
मुगल काल में माना जाता था कि अगर लोग अपनी धार्मिक और पवित्र पुस्तकों पर हाथ रखकर शपथ लेंगे तो उनके झूठ बोलने की आशंका न के बराबर होगी. अंग्रेजों ने 1873 में भारतीय शपथ अधिनियम के साथ इस प्रथा को बदल दिया. मुगल काल और ब्रिटिश राज में हिंदुओं के लिए सबसे पवित्र ग्रंथ भगवत गीता को माना जाता था न कि रामायण या रामचरित मानस को. भारत में शपथ की अवधारणा मुगल काल के दौरान विकसित हुई थी, जब गवाहों को अपने धर्म की धार्मिक पुस्तक पर हाथ रखकर शपथ लेनी पड़ती थी.
1873 में परंपरा को कर दिया गया खत्म
ब्रिटिश काल की शुरुआत में शपथ की सुसंगत या एक समान प्रणाली स्थापित करने के लिए धार्मिक पुस्तक पर हाथ रखकर शपथ लेने की परंपरा को खत्म कर दिया गया. सभी ट्रायल कोर्ट को इसके अंतर्गत लाया गया. इस कानून को ” भारतीय शपथ अधिनियम, 1873 ” के बाद उचित मान्यता मिली, जिसने सभी अदालतों में शपथ की एक समान प्रणाली का विस्तार किया गया. हालांकि तब भी बॉम्बे जैसे हाईकोर्ट में 1957 तक गैर-हिंदुओं और गैर-मुसलमानों के लिए पवित्र पुस्तक की शपथ जारी रही. इस पूरे विषय को हम कुठ सवालों के जरिए समझते हैं.
सवाल – मुगल काल में गीता या गंगा जल या कुरान पर हाथ रखकर क्यों शपथ दिलाई जाती थी?
जवाब– मुगल काल में अगर कोई राजा किसी मामले को सुलझाने के लिए न्यायाधीश की भूमिका निभाता था तो गवाह को उसकी धार्मिक पुस्तक पर हाथ रखकर शपथ लेनी होती थी. हिंदू गंगा जल भी हाथ में लेकर शपथ ले सकते थे. कोई हिंदू कार्यवाही में कुछ भी कहते समय अपना हाथ गीता पर रखता था और वहीं मुसलमान को कुरान पर हाथ रखता होता था. उस समय ऐसी मान्यता थी कि हर इंसान अपने धर्म, अपने भगवान के प्रति बेहद वफादार है, इसलिए लोग अपने धार्मिक ग्रंथ की शपथ लेते समय केवल सत्य ही बोलेंगे.
सवाल – क्या आज भी गीता की न्यायिक प्रणाली में कोई भूमिका है?
जवाब– भारत की अदालतों में न्यायिक प्रणाली में अब भगवत गीता का कोई रोल नहीं है. हालांकि 1952 में उद्घाटन किए किए गए सुप्रीम कोर्ट भवन के ऊपर गीता का संस्कृत का शिलालेख जरूर लगा है. इस श्लोक में कहा गया है, "यतो धर्महस्ततो जय", जिसका अनूदित अर्थ यह है कि जीत धर्म के पक्ष में खड़े लोगों की है, जैसा कि महाभारत में गांधारी से कहा गया था. महाकाव्य में, दुर्योधन और उनके अन्य पुत्र पांडवों के खिलाफ युद्ध जीतने के लिए इतने बेताब थे कि उन्होंने 18-दिवसीय युद्ध के हर एक दिन गांधारी का आशीर्वाद मांगा. तब गांधारी ने आशीर्वाद देने में सावधानी बरतते हुए कहा: “जीत धर्म की हो.” युद्ध में पांडवों की विजय हुई थी.
सवाल – ब्रिटिश सरकार ने इस परंपरा को क्यों खत्म कर दिया?
जवाब – साल 1873 में ब्रिटिश सरकार ने समान प्रणाली (भारतीय शपथ अधिनियम 1873) लागू करके इस प्रथा को खत्म कर दिया. लेकिन बॉम्बे हाई कोर्ट ने इस प्रथा को 1957 तक जारी रखा. इसके बाद 28वें विधि आयोग की रिपोर्ट में इस मामले को उठाया गया कि जो लोग भगवान में विश्वास नहीं करते वे धार्मिक पुस्तकों की शपथ लेने के बाद भी झूठ बोल सकते हैं. इस मुद्दे पर विचार करने के बाद 1969 में इस परंपरा को को पूरी तरह से खत्म कर दिया.
किस धर्म के लोग किसकी कसम खाते थे?
साल 1969 तक बांबे हाईकोर्ट और दूसरी हाईकोर्ट में ईसाई को न्यू टेस्टामेंट की, यहूदी को हिब्रू टेस्टामेंट की और पारसी को जूते पहनकर खुले ज़ेंड-अवेस्ता की कसम खानी पड़ती थी.
सवाल – क्या ब्रिटेन में अब भी अदालतों में गीता का इस्तेमाल शपथ के लिए होता है?
जवाब– हां, ब्रिटेन की अदालतों में अब भी कोई भी हिंदू अदालत में गीता पर हाथ रखकर शपथ ले सकता है. इसे माना जाता है.
सवाल – अदालतों में शपथ क्यों लेनी पड़ती है?
जवाब – न्यायिक कार्यवाही में, गवाह शपथ लेने के बाद ही सच बोलने के लिए उत्तरदायी होता है. यदि कोई गवाह सच बोलने की शपथ लेने के बाद न्यायिक कार्यवाही में झूठ बोलता है, तो यह स्वयं भारतीय दंड संहिता, 1872 के तहत एक अपराध है. आईपीसी की धारा 193 झूठे साक्ष्य देने या गढ़ने के लिए सजा से संबंधित है लेकिन ये शपथ लेने के बाद ही लागू होता है. झूठे साक्ष्य देना या झूठे साक्ष्य गढ़ने पर 07 साल तक की सजा हो सकती है.
सवाल – किस उम्र तक अदालत में शपथ लेने की जरूरत नहीं पड़ती?
जवाब– 12 वर्ष से कम उम्र के किसी भी बच्चे को ऐसी शपथ लेने की आवश्यकता नहीं है.
सवाल – अब भारतीय अदालतों में सबसे पवित्र पुस्तक कौन सी है?
जवाब– अब अदालतों के अंदर संविधान ही एकमात्र पवित्र पुस्तक है. इसी के जरिए न्याय की अवधारणा को अमल में लाया जाता है.