नमाज़-ए-जनाज़ा, कब्र पर मिट्टी डालना और मुर्दे को दफनाने का हजारों साल पुराना इतिहास
मुख्तार अंसारी की नमाज़-ए-जनाज़ा से पहले ही डीएम और अफजाल अंसारी के बीच मिट्टी में शामिल होने को लेकर बहस हुई थी. जिसका वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रहा है.
मुख्तार अंसारी को सुपुर्द-ए-खाक कर दिया गया है. हजारों की तादाद में लोगों ने नमाज-ए-जनाज़ा में शिरकत की. हालांकि तद्फीन यानी दफनाने की प्रक्रिया के दौरान कुछ ही लोग कब्रिस्तान के अंदर जा पाए. मुख्तार अंसारी को मिट्टी के हवाले करने के बाद सोशल मीडिया पर एक वीडियो तेजी से वायरल हुआ. जिसमें मुख्तार के बड़े भाई अफज़ाल अंसारी डीएम के साथ तीखी बहस कर रहे थे. ये बहस मिट्टी में शामिल होने वाले लोगों की तादाद को लेकर हो रही थी. डीएम कह रही थीं कि सिर्फ घर के लोगों को ही मिट्टी में शामिल किया जाए. हालांकि अफज़ाल अंसारी की दलील थी कि यह आप तय नहीं करेंगीं, ये धार्मिक चीज है और यहां जो भी शामिल होना चाहेगा वो शामिल होगा, आपको जो करना है करिए. इस खबर में हम आपको नमाज़-ए-जनाज़ा और मिट्टी से जुड़ी कुछ इस्लामिक मान्यताओं के बारे में बताने जा रहे हैं.
देखिए वीडियो
सबसे पहले आपको यह बताते हैं कि नमाज़-ए-जनाज़ा की इस्लाम में कितनी अहमियत है? इसकी कब शुरुआत हुई और पहली बार नमाज़-ए-जनाज़ा किसकी पढ़ी गई थी. जब हम रिसर्च कर रहे थे तो पता चला कि जनाज़े की नमाज़ पढ़ना फर्ज़-ए-किफाया होता है. यानी एक ऐसा फर्ज़ या ज़रूरी काम जो सबके लिए ज़रूरी नहीं होता लेकिन अगर कोई एक शख्स भी उस काम को कर ले तो वो सब की तरफ़ से माना जाएगा.
जनाजे़ की नमाज़ को उदाहरण बनाकर देखें तो अगर कोई शख्स मर जाता है और उसकी नमाज़-ए-जनाज़ा नहीं पढ़ी गई तो वो सब लोग गुनाहगार यानी पापी होंगे जिन-जिन को इस शख्स की मौत के बारे में पता था. वहीं अगर कोई एक भी शख्स जनाज़े की नमाज़ पढ़ लेता है तो बाकी लोग गुनाहगार होने से बच जाएंगे. नमाज़-ए-जनाज़ा पढ़ने की कुछ शर्तें भी हैं. इनमें कुछ शर्तें आम नमाज़ों की तरह ही हैं.
जनाज़े की नमाज़ की कुछ शर्तें
➤ चेहरे का रुख़ काबे की तरफ होना ज़रूरी है.
➤ नमाज़ पढ़ने वाले पाक-साफ हों.
➤ जिसकी नमाज़ पढ़ी जा रही है उसका बदन भी साफ सुथरा होना ज़रूरी है.
➤ जिस जगह नमाज पढ़ी जा रही हो उस जगह का पाक होना भी जरूरी है.
➤ जिसकी नमाज़-जनाज़ा पढ़ाई जा रही हो उसका मुस्लिम होना ज़रूरी है.
➤ अगर मय्यत यानी मुर्दा कफ़न के बिना यानी नग्न है तो नमाज़ नहीं होगी.
➤ जिस पर मय्यत तो लेटाया गया हो उसका जमीन पर रखा होना ज़रूरी है.
➤ मय्यत का शरीर सिर या फिर धड़ के बिना है तो उसकी नमाज़ भी सही नहीं होगी.
जनाज़े में ज्यादा लोगों का शामिल होना:
जनाज़े की नमाज़ को लेकर कहा जाता है कि जितने ज्यादा लोग नमाज़ के दौरान शामिल हों, उतना अच्छा है. क्योंकि इस्लाम के मुताबिक मरने के बाद भी एक दुनिया और हर चीज का हिसाब भी देना है. ऐसे में ज्यादा से ज्यादा लोग जनाजे़ की नमाज़ में शामिल हों. मरने वाले के लिए दुआ करें. जितने ज्यादा लोग उसमें शामिल होंगे मुर्दे के लिए उतने लोगों की तरफ से दुआ की जाती है. इसके अलावा यह भी है कि नमाज़ पढ़ाने वाले इमाम के पीछे कम से कम तीन सफहें यानी तीन लाइन में लोग खड़े हों. अगर नमाज़ी किसी वजह से कम भी हैं तो तब भी तीन लाइन ही बनानी चाहिए. उदाहरण के तौर पर बताया गया है कि अगर जनाज़े की नमाज़ में सिर्फ 7 लोग भी हैं तो एक आदमी को इमाम बना दिया जाए जो नमाज़ पढ़ाएगा. इमाम के पीछे वाली लाइन में 3 तीन लोगों को खड़ा कर दिया जाए. वहीं उसके पीछे वाली लाइन में दो और उनके पीछे एक शख्स को खड़ा किया जाए.
नमाज-ए-जनाजा की शुरुआत कब हुई?
नमाज़-ए-जनाज़ा की शुरुआत को समझने से पहले ये जानना ज़रूरी है कि फिलहाल सन 2024 चल रहा है लेकिन इस्लामिक यानी हिज्री कैलेंडर के हिसाब से सन 1445 का 9वां महीना (रमज़ान) चल रहा है. हिज्री कैलेंडर की शुरुआत तब हुई थी जब पैगंबर मोहम्मद (स.) ने मक्का से मदीना का तरफ हिजरत की थी. हिजरत यानी संकट के समय अपनी जन्म-भूमि छोड़कर कहीं दूसरी जगह चले जाने को कहते हैं. जब पैगंबर मोहम्मद साहब के मक्का से मदीना पहुंचने के बाद जनाज़े की नमाज़ को फर्ज़ बताया गया है. इस हिसाब से पहली हिज्री को ही जनाज़े की नमाज़ की शुरुआत हुई थी. पहली बार जनाजे़ की नमाज़ हजरत बराअ बिन माअरूर अंसारी (र.) की पढ़ी गई थी. इसके अलावा एक जगह यह भी है कि सबसे पहली नमाज-ए-जनाज़ा हज़रत असअद बिन जरारह (र.) की अदा की गई थी. इनकी मृत्यु भी हिज्री कैलेंजर के पहले साल में ही हुई थी.
कब्र पर मिट्टी डालना:
कब्र पर मिट्टी डालने को इस्लाम में ज़रूरी बताया गया है. पैगंबर मोहम्मद साहब खुद भी कब्र पर तीन मुट्ठी मिट्टी डालते थे. जिसका जिक्र हदीस (इस्लाम में कुरआन के बाद सबसे अहम किताबें) में भी है. बताया गया है कि पैगंबर मोहम्मद साहब मुर्दे के सिर की तरफ खड़े होकर एक मुट्ठी मिट्टी सिर की तरफ डालते थे. दूसरी मुट्ठी मिट्टी बीच में डालते थे वहीं तीसरी बार वो मुर्दे के पांव की तरफ डालते थे. यहां यह भी गौर करने वाली बात है कि पैगंबर मोहम्मद साहब तीनों बार अलग-अलग दुआ पढ़ा करते थे. अगर लोगों की तादाद कम हो तो तीन मुट्ठी मिट्टी डालने के बाद बाकी मिट्टी को भी डाला जाएगा. इस हिसाब से कब्र पर मिट्टी डालना भी पैगंबर मोहम्मद साहब के नक्श-ए-कदम पर चला है.
मुर्दे को दफनाने की शुरुआत कब हुई?
इस्लामी मान्यताओं के मुताबिक इस दुनिया के पहले इंसान आदम थे. आदम के बेटे काबील ने अपने भाई हाबील को क़त्ल कर दिया था. इसके बाद समझ नहीं आ रहा था कि लाश का किया जाए. ऐसे में अल्लाह ने मुर्दे को दफ़नाने का तरीक़ा सिखाने के लिए वहां पर एक कोआ भेजा और उस कोए ने एक दूसरे मुर्दे कोए के लिए गड्ढा खोदा, फिर उसमें दफ़ना दिया. इसके बाद से ही इंसानों को दफ़नाने का अमल भी शुरू हुआ है. इस बात का ज़िक्र कुरआन भी है. (सूरह अलमायदा में आयत नंबर 31 में इस बात का जिक्र है).
डिस्क्लेमर: यह खबर इस्लामिक वेबसाइट से ली गई जानकारी के आधार पर लिखी गई है. जिस जगह से जानकारी ली गई है उसके लिंक भी खबर के अंदर मौजूद हैं.