Explainer : असम में गरीबों के लिए लड़ने वाला ULFA कैसे बना उग्रवादी संगठन? जानें पूरा इतिहास

History of ULFA : यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असोम यानी उल्फा (ULFA) ने त्रिपक्षीय शांति समझौते पर हस्ताक्षर कर हिंसा और उग्रवाद का रास्ता छोड़ दिया है. पिछले 44 साल में पहली बार ऐसा हुआ है. उग्रवादी संगठन शांति के रास्ते पर चलने के लिए तैयार हो गया है. ऐसे में आज इसके इतिहास के बारे में समझते हैं.

Pankaj Soni
Edited By: Pankaj Soni

असम का उग्रवादी संगठन यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असोम यानी उल्फा (ULFA) ने  सरकार के साथ त्रिपक्षीय शांति समझौते पर हस्ताक्षर किया है. पिछले 44 सालों में ऐसा पहली बार हुआ है. यह समझौता केंद्र सरकार, उल्फा और असोम सरकार के बीच हुआ है. शुरुआत में इस संगठन की पहचान गरीबों-मजलूमों की मदद करने वाले संगठन के रूप में हुई थी. बाद में यह संगठन शस्त्र उठाकर शासन-सत्ता-व्यवस्था से टकराने लगा. 

उल्फा का गठन क्यों हुआ था?

7 अप्रैल 1979 को असोम (तब असम) के शिवसागर स्थित अहोम युग के एक एम्पीथिएटर में तीन युवाओं ने एक संगठन की नींव रखी. संगठन का नाम रखा यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम, जिसे अब यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असोम लिखा जाता है. इस संगठन को बनाने वाले युवा नेता थे परेश बरुआ, अरबिंद राजखोवा और अनूप चेतिया. ये तीनों नेता अपने संगठन के जरिए असोम को एक स्वतंत्र संप्रभु राज्य बनाना चाहते थे. इसके लिए संगठन के सदस्यों ने जून, 1979 में मोरान में एक बैठक की, जिसका उद्देश्य था संगठन का नाम, प्रतीक, झंडा और संविधान को तय करना.

साल भर बाद बदल गई संगठन की राह

शुरुआती दिनों में उल्फा को लाचार-गरीबों की मदद करने वाला संगठन माना जाता था. लेकिन यह कारवां ज्यादा दिनों तक नहीं चला और साल भर के भीतर ही संगठन ने अपनी राह छोड़ दी. वह उग्रवाद के रास्ते पर चल पड़ा. इस संगठन ने सरकार के खिलाफ सशस्त्र लड़ाई शुरू कर दी. साल 1980 में उल्फा ने कांग्रेस के नेताओं को निशाना बनाना शुरू कर दिया. यही नहीं, राज्य के बाहर के व्यापारिक घरानों, चाय बागानों और सरकारी कंपनियों, खासकर तेल और गैस की कंपनियों पर हमला करना शुरू कर दिया. इससे संगठन की हथियारों के बल पर ताकत बढ़ने लगी.

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फाइल फोटो.

 

जब सरकार ने उल्फा पर लगा दिया प्रतिबंध

1985 से 1990 के दौरान असम में प्रफुल्ल कुमार महंत की अगुवाई वाली असम गण परिषद की सरकार के कार्यकाल में उल्फा ने पूरे राज्य में उथल-पुथल मचा दी. ये वही दौर था, जब 1990 में ब्रिटेन में भारतीय मूल के व्यवसायी लॉर्ड स्वराज पॉल के भाई चाय बागान मालिक सुरेंद्र पॉल की उल्फा ने हत्या कर दी. इस घटना के बाद संगठन चर्चा में आ गया. 1991 में रूसी इंजीनियर सर्गेई का उल्फा ने अपहरण कर लिया और बाद में उनकी भी हत्या कर दी.

इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की बदनामी हुई और दुनिया के दूसरे देशों का भारत पर दबाव भी बढ़ने लगा. उधर, उल्फा ने जबरन वसूली, अपहरण और हत्या जैसी वारदातों का सिलसिला शुरू कर दिया. इसको देखते हुए 1990 में भारत सरकार ने उल्फा पर प्रतिबंध लगा दिया. असम को अशांत क्षेत्र घोषित करते हुए वहां सशस्त्र बल (विशेष शक्तियां) अधिनियम लागू कर उल्फा को अलगाववादी और गैरकानूनी संगठन करार दिया. 

ऑपरेशन बजरंग की हुई शुरुआत

इस बीच एक और घटना हुई. नवंबर 1990 में ही असम सरकार को कोई जानकारी दिए बिना वहां फंसे यूनिलीवर कंपनी के 7 चाय अफसरों को केंद्रीय गृह मंत्रालय ने डूबडूमा से एयरलिफ्ट करा लिया. साथ ही उल्फा के साथ केंद्र सरकार ने कई बार बात करनी चाही पर उसने दिलचस्पी नहीं ली. इस पर 28 नवंबर 1990 को सेना ने उल्फा के खिलाफ ऑपरेशन बजरंग शुरू कर दिया. इस ऑपरेशन की अगुवाई तब जीओसी 4 कोर कमांडर लेफ्टिनेंट जनरल अजय सिंह ने की. लेफ्टिनेंट जनरल अजय सिंह बाद में असोम के राज्यपाल भी बने. हालांकि, 31 जनवरी 1991 को ऑपरेशन बजरंग बंद कर दिया गया.

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फाइल फोटो.

 

उल्फा नेताओं की गिरफ्तारी और रिहाई

तमाम घटनाओं के बीच साल 2004 में उल्फा सरकार से बातचीत को राजी हुआ और सितंबर 2005 में ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता लेखिका इंदिरा रायसोम गोस्वामी की अगुवाई में केंद्र सरकार के साथ तीन दौर की बातचीत हुई. लेकिन इसका इसका कोई नतीजा नहीं निकला. भूटान और बांग्लादेश तक अपनी गतिविधियों में लिप्त उल्फा के अध्यक्ष अरबिंद राजखोवा और उल्फा के दूसरे नेताओं को दिसंबर 2009 में बांग्लादेश में गिरफ्तार कर लिया गया. इसके बाद इनको भारत लाकर गुवाहाटी की जेल में रखा गया. सभी नेताओं को 2011 में रिहा कर दिया गया, जबकि 1997 से ही बांग्लादेश की जेल में सजा काट रहे उल्फा महासचिव अनूप चेतिया को 2015 में जेल से रिहा किया गया. 

फिर दो हिस्सों में बंट गया संगठन

केंद्र सरकार की बढ़ती कोशिशों और दबावों के चलते अरबिंद राजखोवा ने सरकार से बातचीत शुरू कर दी जो संगठन के कमांडर परेश बरुआ को पसंद नहीं आई. इसलिए उल्फा दो हिस्सों में बंट गया. सरकार से बातचीत के समर्थक अरबिंद राजखोवा के साथ रहे, जिनके धड़े ने शांति समझौते पर हस्ताक्षर भी कर दिया है. वैसे भी यह गुट लंबे समय से असम में किसी गतिविधि में लिप्त नहीं पाया गया है. केंद्र-राज्य सरकारों और उल्फा के बीच हुए सस्पेंशन ऑफ ऑपरेशंस (एसओओ) समझौते के बाद राजखोवा गुट ने 3 सितंबर, 2011 को सरकार के साथ शांति वार्ता शुरू की थी. वहीं, परेश बरुआ के गुट ने अब तक किसी भी तरह के शांति समझौते से दूरी बना रखी है. उम्मीद की जानी चाहिए कि जल्दी हई दूसरा गुट भी शांति के मार्ग पर चलने को सहमत होगा.

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30 December 2023, 05:44 PM IST

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