Kargil Vijay Diwas: पाकिस्तान की घुसपैठ को नाकाम किया.., हारी हुई बाजी अपने नाम की.., 24 साल पहले जब दुनिया ने देखा भारत का शौर्य
1999 में पाकिस्तान की नापाक हरकतों और घुसपैठ की वजह से हुए कारगिल युद्ध में भारत के अनेक वीर सपूतों ने अपना बलिदान दे दिया. आज उन्हें याद करने का दिन है.
"मेरे लक्ष्य तक पहुंचने से पहले यदि मौत भी मेरे सामने आई तो मैं उसे भी मार दूंगा.., ये दिल मांगे मोर".... ये कुछ ऐसे वाक्य हैं जो कारगिल युद्ध के बाद आज भी लोगों के आंखों में आसू ला देते हैं. हमारे वीर सपूतों ने ये पराक्रमी वाक्य अपने डायरी में इस युद्ध से पहले लिखे थे. हालांकि, उनकी ये डायरी के पन्ने जब लोगों के पास तक पहुंचे तब तक वह इस देश की रक्षा में अपना सर्वस्व न्योछावर कर चुके थे.
कारगिल युद्ध को हुए 24 साल का समय बीत चुका है लेकिन इस युद्ध को जिन्होने लड़ा या अपनी आंखों से देखा उनके जहन में इसकी तस्वीरें ऐसे साफ दिखाई पड़ती हैं जैसे ये सब कल की ही बात हो. करीब तीन महीनों तक लड़े गए इस युद्ध में भारत ने अपने 562 जवानों को खोया लेकिन मां भारती के दामन में एक भी दाग न लगने दिया. पाकिस्तानियों के नापाक मनसूबों पर पानी फेरने के लिए एक-एक भारतीय जवान ने अपनी आखिरी सांस तक मातृभूमि के सम्मान में युद्ध किया. जिस वक्त ये जंग हुई उस समय भारत में अटल बिहारी वायपेई की सरकार थी.
8 मई 1999, ये वही दिन था जब पहली बार इस बात की भनक लगी की पाकिस्तानी घुसपैठिये भारत के आंचल में दाग लगाने के लिए कारगिल की ऊंची पहाड़ियों पर छुपे बैठे हैं. कुछ चरवाहों से मिली इस सूचना के बाद 6 नॉरदर्न लाइट इंफ़ैंट्री के कैप्टेन इफ़्तेख़ार और लांस हवलदार अब्दुल हकीम 12 सैनिकों के साथ कारगिल की आज़म चौकी पर ये पता करने में कामयाब हो पाए की कारगिल की चोटी अब दुशमनों के कब्जे में है.
सेना ने पहले तो अपने स्तर से इससे निपटने की कोशिश की लेकिन जब उन्हें दुश्मन की ताकत का अंदाजा लगा तो बात सरकार तक पहुंची और आगे की रणनीति तैयार की जाने लगी.
सियाचिन को भारत से अलग करने के मकसद से घुसपैठ करके बैठे उन पाकिस्तानियों से लड़ना इसलिए मुश्किल हो रहा था क्योंकि वे भारतीय सैनिकों की तुलना में काफी उंचाई पर बैठे थे. 13 हज़ार 620 फीट की ऊंचाई वाली इस कारगिल चोटी से दुश्मन हमारी सभी गतिविधियों पर नजर रख सकता था. इस चोटी पर चढ़ना अपने आप में संघर्ष का काम था.
भारतीय सैनिकों ने इस युद्ध को जीतने के लिए जी जान लगा दिया. हमने हारी हुई बाजी को अपने नाम कर लिया. इस युद्ध पर बहुत सारी फिल्में भी बनी. माना जाता है कि इस युद्ध की रूप रेखा भले ही आर्मी के अनुभवी अफसरों ने बनाई हो लिकन इस युद्ध को अंजाम तक पहुंचाने में उन जवानों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिनकी उम्र महज 19 साल से 25 साल के बीच थी. इन्हीं जाबाज जवानों ने अपने प्राणों पर खेलकर इस युद्ध में भारत को विजय दिलाई.
562 ऐसे परिवार जिनके सहारा इस युद्ध में शहीद हो गया. न जानें कितनी पत्निया विधवा हो गईं, न जाने कितने बापों ने अपने बेटे खो दिए, मां इंतजार करती रह गए और छोटे-छोटे बच्चे अनाथ हो गए. कई वीर सपूत तो ऐसे भी हैं जो युद्ध शुरू होेने पर घर में छुट्टी बिता रहे थे लेकिन उनके जज्बे ने उन्हें युद्ध से दूर न रहने दिया. वे खबर मिलते ही अपने परिवार को छोड़ कर जंग के लिए रवाना हो गए.
इस युद्ध में तमाम जवान ऐसे भी निकले जो जीवित तो बच गए लेकिन अब सेना के लिए फिट नहीं रहे. ऐसे जवानों की संख्या का कोई अंदाजा ही नहीं है. इस युद्ध ने उन्हें जीवन भर के लिए घर पर बैठा दिया. एक सैनिक के लिए ये सबसे बड़ी सजा की तरह है. आज वे चाहे जैसी हालत में हों लेकिन उन्हें इस बात पर हमेशा गर्व होता है कि उन्होने अपनी जवानी इस देश की सुरक्षा में कुर्बान कर दी.
इस युद्ध के तमाम ऐसे नाम हैं जिन्हें लोग आज भी सलाम करते हैं - कैप्टन विक्रम बत्रा, लेफ्टिनेंट मनोज कुमार पांडे, सूबेदार योगेंद्र सिंह यादव, सुल्तान सिंह नरवरिया, लांस नायक दिनेश सिंह भदौरिया, मेजर एम. सरावनन, मेजर राजेश सिंह, शहीद लांस नायक करन सिंह जैसे नामों की सूची बहुत बड़ी है.
इन्हीं वीर सपूतों के साथ कई वीर जवान ऐसे भी हैं जिन्हें बारे के में शायद ही कोई जानता हो. आज बड़ी मुश्किल से ही उनका गुजारा हो रहा है. इस देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा की जिन जवानों ने इस देश के लिए अपनी जान तक की परवाह नहीं की उनके लिए जीवन बिताना ही आज सबसे बड़ी चुनौती बन गया है. ऐसे परिवारों और जवानों की सूची तो बहुत बड़ी है फिर भी कुछ नामों से ही आप अंदाजा लगा सकते हैं.
कार्गिल यूद्ध के ऐसे सुपरहीरो जिनके बारे में कोई नहीं जानता.., आखिर आज किस हालत में हैं वे...
बहादुर सिंह, कार्गिल युद्ध में अपनी आंख गंवाने वाले बहादुर सिंह इस समय करनाल में अपनी पत्नी के साथ हैं. युद्ध के बाद उनकी एक आंख चली गई और सेना ने उन्हें रिटायर्ड कर दिया. वे फिर कोई काम नहीं कर पाए. फिलहाल बेहद किल्लत के साथ उनका जीवन बीत रहा है.
दान सिंह मेहता, कारगिल युद्ध में इनका शरीर 70 फीसदी तक बेकार हो गया. आज भी इनके सीने में दाहिनी तरफ 9mm की गोली धंसी हुई है. इनके पास कार्गिल की यादें हैं और लगभग 30 से ज्यादा जख्मों के निशान. दान सिंह अपनी खुद की दुकान चलाते हैं.
कमांडो दिगेंद्र कुमार, इन्होने सीधी पहाड़ी की चढ़ाई की और दुश्मनों के 11 बंकरों पर 18 ग्रेनेड फेंककर उन्हें तबाह कर दिया. कुमार राजुताना राइफल्स के जवान हैं. इन्होने सीने में 3 गोलियां खाईं और कुल 5 गोलियां लगने के बाद भी दुश्मन को मिटाकर चोटी पर तिरंगा फहराया और बेहोस हो गए. आज सिर्फ एक हेक्टयेर जमीन के भरोसे ये अपना जीवन यापन कर रहे हैं.
तमाम ऐसे नाम हैं जो गुमनामी के अंधेरे में खो गए. शायद उनतक वो सरकारी सुविधाएं भी नहीं पहुंच सकीं जिनके वे अधिकारी हैं. न जाने आज भी कितने ऐसे परिवार हैं जो अपनों के खोने के बाद सरकार और समाज से मदद की उम्मीद लगाए बैठे हैं. कारगिल विजय दिवस के अवसर पर उन सभी के प्रति हम अपनी संवेदनाएं व्यक्त करते हैं.