World Braille Day : आज दुनिया वर्ल्ड ब्रेल डे मना रही है. यह दिवस हर साल 4 जनवरी को मनाया जाता है. आज के दिन ब्रेल लिपि को बनाने वाले लुई ब्रेल को याद किया जाता है. क्या आपको पता है कि नेत्रहीनों के मसीहा कहे जाने वाले ब्रेल खुद नेत्रहीन थे. तीन साल की उम्र में उन्होंने चोट लगने के कारण उनकी आंखों की रोशनी चली गई थी. ऐसे में ब्रेल नेत्रहीनों का दर्द बखूबी समझते थे. ब्रेल ने 16 साल की उम्र में एक ऐसी भाषा का आविष्कार कर दिया, जिसे नेत्रहीन भी पढ़ सकें. इस भाषा को हम ब्रेल लिपि के नाम से जानते हैं. इसे भाषा को ब्रेल की मौत के 16 साल बाद मान्यता मिली. इसके बाद से उनकी जयंती पर चार जनवरी को हर साल विश्व ब्रेल दिवस मनाया जाता है. आइए आज हम लुई ब्रेल की कहानी जानते हैं.
लुई ब्रेल का जन्म चार जनवरी 1809 को फ्रांस की राजधानी पेरिस से लगभग 40 किलोमीटर दूर कूपरे नाम के एक गांव में हुआ था. चार भाई बहनों में सबसे छोटे लुई के पिता का नाम सायमन ब्रेल और मां का नाम मोनिका था. लुई के पिता घोड़ों की जीन बनाने वाली फैक्टरी चलाते थे. लुई तीन साल के थे, तभी एक दिन खेल-खेल में चाकू से घोड़े की जीन के लिए चमड़ा काटने की कोशिश करने लगे. उसी दौरान चाकू हाथ से फिसला और उनकी एक आंख में जा लगा. इस चोट के कारण हुए इंफेक्शन से लुई की एक आंख की रोशनी चली गई. इसके बाद संक्रमण का असर दूसरी आंख पर भी दिखने लगा और कुछ दिनों बाद दूसरी आंख की रोशनी भी चली गई.
आंखों की रोशनी जाने के बाद लुई के बचपन के नौ साल ऐसे ही गुजरे. 10 साल के हुए तो पिता ने पेरिस के एक ब्लाइंड स्कूल में उनका दाखिला करा दिया. वह पढ़ाई में अव्वल रहे और अपनी अकादमिक प्रतिभा के बल पर उन्हें रॉयल इंस्टीट्यूट फॉर ब्लाइंड यूथ की स्कॉलरशिप भी मिली. बाद में लुई ब्रेल इसी स्कूल में शिक्षक भी बने.
रॉयल इंस्टीट्यूट फॉर ब्लाइंड में पढ़ाई के दौरान नेत्रहीनों की समस्या हल करने के लिए लुई ब्रेल ने एक टच कोड (स्पर्श कोड) विकसित कर लिया, जिससे देखने में अक्षम लोग बिना किसी की मदद के पढ़ाई कर सकें. इसी दौरान उनकी मुलाकात सेना के कैप्टन चार्ल्स बार्बियर से हुई. उन्होंने भी एक खास लिपि विकसित की थी, जिसे क्रिप्टोग्राफी लिपि कहा जाता था. यह लिपि सेना के काम आती थी. इसकी मदद से रात के अंधेरे में भी सैनिकों को मैसेज पढ़ने में कोई दिक्कत नहीं आती थी.
नेत्रहीनों के लिए तैयार की गई लुई ब्रेल की खास लिपि 12 प्वाइंट्स पर आधारित थी. इन सभी 12 प्वाइंट्स को 6-6 की लाइन में रखते थे. उस समय इसमें फुलस्टॉप, नंबर और मैथ्स के तमाम सिम्बल के लिए कोई जगह नहीं थी. इस कमी को दूर करने के लिए बाद में लुई ब्रेल ने 12 की जगह केवल छह प्वाइंट्स का इस्तेमाल किया. इसके बाद अपनी खास लिपि में 64 लेटर (अक्षर) और साइन (चिह्न) जोड़े.
लुई ब्रेल को जब यकीन हो गया कि उनकी लिपि दुनिया के काम आ सकती है तो पहली बार सन् 1824-25 में इसको दुनिया के सामने लाया गया. इसके बाद 1829 ईस्वी में इस लिपि की प्रणाली को पब्लिश किया, जिसे बाद में उन्हीं के नाम पर ब्रेल लिपि कहा गया. हालांकि, इसे जब मान्यता मिली, तब तक वह जीवित नहीं थे.
लुई ब्रेल ने केवल 43 साल की उम्र में 6 जनवरी 1852 को दुनिया को अलविदा कह दिया. तब तक उनकी लिपि को मान्यता नहीं मिली थी. लुई ब्रेल की मौत के 16 साल बाद सन् 1868 ईस्वी में ब्रेल लिपि को प्रमाणिक रूप से मान्यता दी गई. तबसे लुई ब्रेल की यह भाषा आज भी पूरी दुनिया में मान्य है.
लुई ब्रेल के काम को दुनिया ने उनके जिंदा रहते ठीक से नहीं समझा और न ही उनके काम को सराहा, लेकिन उनकी मौत के बाद उनके काम की प्रशंसा हुई और पूरी दुनिया में उनका सम्मान होने लगा. संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 2019 में फैसला किया कि लुई ब्रेल के सम्मान में हर साल चार जनवरी यानी उनकी जयंती पर पूरी दुनिया में लुई ब्रेल दिवस मनाया जाएगा. पहली बार उसी साल चार जनवरी को यह दिवस मनाया गया और तबसे लगातार हर साल मनाया जाता है.
लुई ब्रेल के जन्म के दो सौ साल पूरे होने पर चार जनवरी 2009 को भारत सरकार ने लुई ब्रेल के सम्मान में डाक टिकट जारी किया था, जिस पर उनकी तस्वीर थी. आज विश्व भर के देखने में अक्षम लोगों को ब्रेल लिपि रास्ता दिखा रही है. वे आसानी से इसका इस्तेमाल पढ़ने-लिखने के लिए करते हैं. First Updated : Thursday, 04 January 2024