कभी खटकते थे, अब चहेते...राज ठाकरे और शिवसेना की हिंदी विरोधी राजनीति
महाराष्ट्र की राजनीति में भाषा और क्षेत्रीयता का मुद्दा हमेशा से ही बड़ा रहा है. शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) ने भी हिंदी भाषियों और बाहरी लोगों के खिलाफ समय-समय पर आवाज उठाई है. राज ठाकरे और शिवसेना की राजनीति में हिंदी और उत्तर भारतीयों के प्रति विरोधी रुख नया नहीं है, लेकिन हाल के वर्षों में इसमें बदलाव देखने को मिला है.
महाराष्ट्र की राजनीति में भाषा और क्षेत्रीयता का मुद्दा हमेशा से ही बड़ा रहा है. शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) ने भी हिंदी भाषियों और बाहरी लोगों के खिलाफ समय-समय पर आवाज उठाई है. राज ठाकरे और शिवसेना की राजनीति में हिंदी और उत्तर भारतीयों के प्रति विरोधी रुख नया नहीं है, लेकिन हाल के वर्षों में इसमें बदलाव देखने को मिला है. शिवसेना और मनसे दोनों ने अपने विरोधी रुख को नरम करते हुए हिंदी भाषी लोगों को अपने साथ लाने की कोशिशें शुरू की हैं.
1966 में बाल ठाकरे द्वारा स्थापित शिवसेना का मुख्य एजेंडा मराठी मानुष और महाराष्ट्र की पहचान को बढ़ावा देना था. इसके तहत उन्होंने 'बाहरी लोगों' के खिलाफ जमकर अभियान चलाया. हिंदी भाषी उत्तर भारतीय और दक्षिण भारतीय लोग इनके मुख्य निशाने पर रहे.
शिवसेना ने हमेशा यह कहा कि मुंबई और महाराष्ट्र की नौकरियों और संसाधनों पर पहला हक मराठियों का होना चाहिए. उनके इस क्षेत्रीयता पर आधारित आंदोलन ने उन्हें महाराष्ट्र में एक मजबूत आधार दिया, लेकिन हिंदी भाषी समाज में उनके प्रति नाराजगी बनी रही.