पद्मश्री मुसाफिर राम भारद्वाज का आयु में निधन, राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार
Himachal News: पद्मश्री से सम्मानित और लोक कलाकार मुसाफिर राम भारद्वाज का 103 वर्ष की आयु में निधन हो गया। वह पारंपरिक वाद्य यंत्र पौण माता बजाने में माहिर थे और उन्हें 2014 में कला के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। उनके निधन से प्रदेश में शोक की लहर है। उन्होंने वर्ष 2010 में दिल्ली में हुई राष्ट्रमंडल खेलों में भी प्रस्तुति दी थी।
Himachal News: पद्मश्री एवं राष्ट्रपति अवार्ड से सम्मानित शिव चेले मुसाफिर राम भारद्वाज का शुक्रवार शाम घर पर लगभग 6.45 बजे निधन हो गया। वह लगभग 103 वर्ष के थे। कुछ समय से अस्वस्थ थे। शनिवार को पठानकोट के दुनेरा में पंचतत्व में विलीन हुए. वह चंबा के उपमंडल भरमौर के सचुईं गांव के रहने वाले थे। वह वर्तमान में पंजाब के जिला पठानकोट की धारकलां तहसील के तहत आने वाले दुनेरा के धारकलां में रह रहे थे। उनके निधन से प्रदेश में शोक की लहर है।
2014 में पौण वादन के लिए मिला था पद्मश्री
भगवान शिव के चेले मुसाफिर राम भारद्वाज का आशीर्वाद लेने प्रदेशभर के साथ पूरे देश से लोग आते थे। उन्हें वर्ष 2014 में कला के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए पद्मश्री से सम्मानित किया गया था। उनका जन्म भरमौर के सचुईं गांव निवासी दीवाना राम के घर पर हुआ था। वह पारंपरिक वाद्य यंत्र पौण माता बजाने में माहिर थे। उन्होंने 13 वर्ष की आयु में ही पौण माता बजाना सीख लिया था। इसके अलावा वह किसान के साथ दर्जी भी थे।
राष्ट्रमंडल खेलों में भी दी थी प्रस्तुति.
13 वर्ष की आयु में पारंपरिक वाद्य
पद्मश्री मुसाफिर राम भारद्वाज के भतीजे सेवानिवृत्त प्रिंसिपल प्रकाश भारद्वाज ने बताया कि पद्मश्री मुसाफिर कुछ समय से अस्वस्थ चल रहे थे। उनके निधन की खबर से संगीत जगत में शोक की लहर है। उनका अंतिम संस्कार शनिवार को पूरे राजकीय सम्मान के साथ पतरालुआं स्थित श्मशानघाट में किया गया। मुसाफिर राम का जन्म 1930 में भरमौर के सचुईं गांव में दीवाना राम के घर हुआ था। उन्होंने 13 वर्ष की आयु में पारंपरिक वाद्य यंत्र बजाना सीख लिया था। यह वाद्य यंत्र तांबे के ढांचे पर भेड़ की खाल से बनाया जाता है।
पद्मश्री मुसाफिर राम भारद्वाज का निधन देश व गद्दी जनजाति के लोगों के लिए भारी क्षति है। सामान्य व्यक्ति से पद्मश्री होने के लिए लगातार कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। पौण वादन कला को उनके वंशज व समाज के कुछ अन्य लोग भी आगे बढ़ा रहे हैं लेकिन इस कला को फिर कोई पद्मश्री तक ले जाएगा, इसके लिए शायद लंबा इंतजार करना पड़ेगा।