बलात्कार पीड़िता को न्याय के लिए करना पड़ा 40 का इंतजार, जानें सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?
राजस्थान की एक बलात्कार पीड़िता को न्याय के लिए 40 सालों का इंतजार करना पड़ा. आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने पीड़िता को न्याय देते हुए आरोपी को दोषी करार दिया और 4 हफ्तों में सरेंडर करने को कहा. दरअसल, राजस्थान हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को बदलते हुए आरोपी को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया था. हाईकोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई और अंततः सुप्रीम कोर्ट ने आरोपी को दोषी करार दिया.

भारत में न्याय मिलना कितना कठिन है, इस बात का अंदाजा सिर्फ इस बात से लगाया जा सकता है कि एक बलात्कार पीड़िता को न्याय के लिए करीब 40 साल का इंतजार करना पड़ा. सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को व्यक्ति की सजा को बरकरार रखते हुए महिला और उसके परिवार के प्रति अपनी सहानभूति जताई. जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संजय करोल की पीठ ने राजस्थान हाईकोर्ट के जुलाई 2013 के फैसले को खारिज करते हुए कहा कि यह बहुत दुख की बात है कि इस नाबालिग लड़की और उसके परिवार को अपने जीवन के इस भयावह अध्याय के बंद होने के इंतजार में लगभग चार दशक गुजारने पड़ रहे हैं.
1986 का है मामला
1986 में नाबालिग महिला के साथ 21 वर्षीय एक व्यक्ति ने बलात्कार किया था. नवंबर 1987 में उसे ट्रायल कोर्ट ने दोषी ठहराया और सात साल की जेल की सजा सुनाई. कई सालों तक यह मामला विभिन्न अदालतों में घूमता रहा और अंत में इसका फैसला राजस्थान हाईकोर्ट में आया, गवाहों के ठोस बयानों के अभाव का हवाला देते हुए दोषी युवक को बरी कर दिया गया.
हाईकोर्ट के फैसले पर सुप्रीम कोर्ट की राय
कोर्ट ने कहा कि यह सच है कि पीड़िता ने अपने खिलाफ हुई घटना के बारे में कुछ भी नहीं बताया है. घटना के बारे में पूछे जाने पर, ट्रायल जज ने दर्ज किया कि पीड़िता चुप थी और आगे पूछे जाने पर केवल चुपचाप आंसू बहाए और इससे ज्यादा कुछ नहीं. लेकिन जजों ने कहा कि इसे आरोपी के पक्ष में कारक नहीं माना जा सकता. बच्चे की चुप्पी आघात से उपजी थी.
जजों ने कहा कि बच्चे की चुप्पी की तुलना वयस्क की चुप्पी से नहीं की जा सकती, जिसे फिर से उसकी अपनी परिस्थितियों के अनुसार तौला जाना चाहिए. एक बच्ची जिस पर इतनी कम उम्र में इस तरह की भयावह सजा थोपी गई है, वह आधार नहीं हो सकता जिसके आधार पर आरोपी को बरी किया जा सके.
राजस्थान हाईकोर्ट को दी नसीहत
यौन उत्पीड़न के बाल पीड़ितों पर अपने फैसलों का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि प्रथम अपीलीय अदालत, यानी हाईकोर्ट से यह अपेक्षा की जाती है कि वह निचली अदालत के निष्कर्षों की पुष्टि या उसमें बदलाव करने से पहले साक्ष्यों का स्वतंत्र रूप से आकलन करेगा.
शीर्ष अदालत ने इस मामले से निपटने के हाईकोर्ट के तरीके पर भी आश्चर्य व्यक्त किया तथा अपने फैसले में पीड़िता का नाम शामिल करने पर नाराजगी जताई. जजों ने आरोपी को चार सप्ताह के भीतर आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया गया है ताकि यदि उसने अभी तक निचली अदालत द्वारा दी गई सजा पूरी नहीं की है तो वह उसे पूरा कर सके.