Independence Day Special: वो मां जिसके बेटे ने देश की लिए दी कुर्बानी और समाज ने किया बहिष्कार, पढ़िए व्यथित करने वाली दास्तां
जिस दीपक ने अपनी रोशनी से पूरे देश को प्रकाश दिया उसकी मां को कभी सम्मान नहीं मिल पाया. ये कहानी है चंद्रशेखर आजाद की मां की जिन्हें समाज ने डाकू की मां कहा.
Independence Day Special: इलाहाबाद के अलफ्रेड पार्क में अंग्रेजों से लोहा लेते हुए कभी गुलाम न होने की कसम खाने वाले आजाद ने अपनी अंतिम गोली से अपने जीवन को भारत मां के नाम समर्पित कर दिया था. इस सर्वोच्च बलिदान का वर्ष था 1931, लेकिन उनके बलिदान को शहादत मानने में इस देश ने कई साल बरबाद कर दिए. और जब तक इस देश ने चंद्रशेखर आजाद के बलिदान को समझा तब तक उनकी मां अंधकार और संघर्ष के साए में अपमान का विष पीते हुए अपना जीवन बिता चुकी थी.
चंद्रशेखर आजाद की मां का नाम जगरानी देवी थी जिनकी मृत्यु देश आजाद होने के 4 साल बाद हुई. 1951 में जगरानी देवी ने आखरी सांस ली, लेकिन उनके मरने के बाद भी उन्हें श्मशान तक ले जाने के लिए चार कंधों को जुटाना मुश्किल हो गया था. देश के लिए अपनी जान देने वाले की मां दो रोटी के लिए तरस रही थी और ये समाज उसे डाकू और लुटेरे की मां कहता रहा.
चंद्रशेखर का एक भाई पहले ही दुनिया को अलविदा कह चुका था. जगरानी देवी एक आखिरी सहारा कुल का दीपक चंद्रशेखर ही बचा था जिसका नाम लेकर उनमें जीने की उम्मीद बसी रहती थी. बेटे ने भारत मां के नाम अपनी पूरी जवानी लिख दी और एक मां के सामने दूसरी मां की सेवा न कर सका. बेटे के निधन के बाद ही पति का साया भी उनपर से उठ गया. कहते हैं चंद्रशेखर के बलिदान के बाद जगरानी देवी को यकीन नहीं हुआ कि उनका बेटा अब कभी वापस नहीं आएगा. लोग उनसे कहते कि तुम्हारा बेटा मर चुका है तो भी उन्हें यकीन नहीं होता था.
कहा जाता है कि उन्होंने अपनी दो उंगलियों को एक धागे से बांध कर रखा था और मन्नत मानी थी कि जब उनका बेटा वापस आएगा तभी वह उसे खोलेंगी. लेकिन उस मां की उंगलिया कभी आजाद न हो सकीं.
कहते हैं वो मां सबसे ज्यादा भाग्यसाली होती है जिसका बेटा अपना जीवन देश के लिए कुर्बान करता है. आजाद के अंदर भारत मां की सेवा करने के संस्कार उनकी मां से ही आए थे. चंद्रशेखर के व्यक्तित्व में स्वाभिमान की जो झलक दिखती है वह उनकी मां का ही प्रतिबिंब है. रिपोर्ट्स बताती हैं कि उनकी मां ने पड़ोस के घरों में गेहूं बीनने और बरतन माजने जैसे काम किये लेकिन कभी किसी के सामने मदद के लिए हाथ नहीं फैलाया.
आजाद के परिवार के पास संपत्ति नहीं थी इसलिए उनकी शहादत के बाद जगरानी देवी के पास कुछ भी नहीं बचा था. उनकी सबसे बड़ी संपत्ति उनका बेटा था जोकि उन्होंने देश के नाम कर दिया. आजाद की शहादत के बाद इस देश ने जगरानी को सम्मान देना तो दूर, ताने मारने शुरू कर दिए. उन्हें डाकू की मां कहते हुए गांव और समाज ने उनका बहिष्कार कर दिया.
बुढ़ापे में जगरानी देवी को अपना जीवन काटना भी मुश्किल हो गया था. अपना पेट पालने के लिए वह जंगल से लकड़ी काटकर लाती थी, तब कहीं जाकर उन्हें दो वक्त की रोटी नसीब होती थी. कहा तो ये भी जाता है कि वह ज्वार और बाजरा खरीद कर उसका घोल बनाकर पीती थीं क्योंकि दाल, चावल, गेंहू और उसे पकाने के लिए ईँधन खरीदने लायक न उनमें शारीरीक सामर्थ्य बचा था और ना ही उनकी उम्र इस लायक थी.
जिस समाज को उनका सम्मान करना था वो लगातार उन्हें ताने मारता रहा. हैरानी और अफसोस इस बात पर होता है कि स्वतंत्रता के 4 वर्ष बाद भी जब तक वह जीवित रहीं इस देश के किसी नेता या जिम्मेदार ने उनकी सुध तक नहीं ली. देश आजाद होने के बाद जब चंद्रशेखर के मित्र सदाशिव राय जेल से बाहर आए तो उन्हें आजाद की मां की इस दयनीय परिस्थिति के बारे में पता चला.
सदाशिव राय आजाद की मां को अपने साथ अपने गांव झांसी ले आए. कहते हैं कि जगरानी देवी इस स्थिति में भी किसी पर बोझ नहीं बनना चाहती थी. किसी तरह से सदाशिव अपने वचन का वास्ता देकर उन्हें अपने साथ लाए. उन्होंने अंतिम समय में जगरानी देवी की सेवा की.
वर्ष 1951 में मार्च के महीने में जगरानी देवी ने अंतिम सांस ली. सदाशिव ने अपनी मां की तरह उनका अंतिम संस्कार खुद अपने हाथों से किया. झांसी के बड़ागांव में आज भी जरजर स्थिति में उनकी स्मारक बनी हुई है. अफसोस इस बात का है कि इस राष्ट्रमाता का स्मारक झांसी में आकार नहीं ले पाया है.
ये कहानी सिर्फ एक आजाद की मां की नहीं है बल्कि न जाने कितने ऐसे किरदार हैं जिन्होंने इस देश के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया लेकिन इस समाज ने उन्हें कुछ नहीं दिया. आज भी न जाने कितने ऐसे परिवार हैं जिन्होंने जंग में इस देश के नाम अपने कुल के दीपक के आहुत कर दिया लेकिन अब उनके खुद के घर पर अंधेरा छाया हुआ है. आइए इस स्वतंत्रता दिवस किसी ऐसे ही एक घर चलते हैं जिसके चिराग ने देश को रोशनी दी हो.
जय हिंद