कौन थे भिखारी ठाकुर जिनको भोजपुरी साहित्य का 'शेक्सपियर' कहा जाता है?
भिखारी ठाकुर ने स्कूल जाकर कभी पढ़ाई नहीं की लेकिन उन्होंने अपने जीवन में लोकगीतों पर 29 किताब लिखीं जो कैथी लिपि में थीं. इससे ही उनकी प्रतिभा का अंदाजा लगाया जा सकता है. इन किताबों को बाद में देवनागरी लिपि में बदला गया.
भारत में भोजपुरी बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई इलाकों में बड़े पैमाने पर बोली और समझे जाने वाली भाषा है. भोजपुरी फिल्म और गीत-संगीत के अलावा लोक संगीत का दायरा भी काफी विस्तृत है. इसकी एक पहचान के तौर पर भिखारी ठाकुर हमेशा याद किए जाते रहेंगे.
भिखारी ठाकुर का जन्म बिहार के एक गरीब और उपेक्षित नाई परिवार में 18 दिसंबर, 1887 को हुआ था. वर्ण व्यवस्था में निचली जाति से ताल्लुक रखने वाले भिखारी ठाकुर को पढ़ने-लिखने का मौका नहीं मिला. उनका गांव कुतुबपुर पुराने शाहाबाद (अब भोजपुर ज़िला) का हिस्सा है. लेकिन गंगा नदी के रास्ता बदलने की वजह से 1926 में कुतुबपुर सारण ज़िले का हिस्सा हो गया.
जानवर चराते और गाना गुनगुनाते थे
भिखारी ठाकुर के गरीब घर से ताल्लुक रखते थे और बचपन में वे गाय-भैंस चराने लगे थे. जानवरों को चराते समय मैदानों में भिखारी ठाकुर मधुर आवाज में गाना गाते थे. भिखारी ठाकुर पढ़े- लिखे तो थे नहीं, लेकिन सुनकर उन्होंने रामतरित मानस की चौपायां, कबीर के निर्गुण भजन और रहीम के दोहों को याद कर लिया. इसके बाद इन्हीं चौपाइयों को अपने स्वर में गाने लगे. इसके बाद वह भोजपुरी गीत-संगीत की दुनिया के सबसे बड़े आइकन बन गए.
भिखारी ठाकुर की शादी बचपन में ही मतुआ देवी से हो गई और जल्दी ही वे शिलानाथ के पिता भी बन गए. भिखारी ठाकुर जीवन-यापन के लिए जानवरों को चराने के साथ ही अपना पुश्तैनी नाई का काम करने लगे. साल 1927 में अकाल के बाद वे आजीविका कमाने के लिए पहले खड़गपुर और फिर बाद में जगन्नाथपुरी गए.
जीनियस से कम नहीं थे भिखारी ठाकुर
भिखारी ठाकुर पढ़े लिखे नहीं थे, समाजिक हैसियत भी नहीं थी लेकिन वे लोगों के चेहरे पर मुस्कान लाना जानते थे. गायकी के अलावा अभिनय और नृत्य को भी उन्होंने साध लिया था. ठाकुर कई तरह के वाद्य यंत्रों को बजाने लगे थे. इतना ही नहीं उन्होंने गांव के लोगों को इसकी ट्रेनिंग देकर एक मंडली बना ली थी. वे अपनी नाट्य मंडली के संगीतकार और निर्देशक भी खुद ही थे.
उन्होंने गांव के लोगों में से गायक, अभिनेता, लबार (जोकर) और संगीतकारों की टीम बनाई थी. भिखारी ठाकुर के पास नाटक करने के लिए कोई मंच नहीं था. वे चौकी (लकड़ी की चारपाई) को किसी पेड़ के नीचे रखकर स्टेज बना लेते थे और ढोलक, झाल और मजीरा के साथ लोगों का मनोरंजन करते थे. असल मायनों में भिखारी ठाकुर को भारत में ओपन एयर थिएटर का जनक माना जा सकता है. भिखारी ठाकुर की नाट्य मंडली कजरी, होली, चैता, बिरहा, चौबोला, बारामासा, सोहार, विवाह गीत, जंतसार, सोरठी, अल्हा, पचरा, भजन और कीर्तिन हर तरह से लोगों का मनोरंजन करने लगी थी. लेकिन भिखारी ठाकुर अपने कविताई अंदाज़ में जिस तरह से सामाजिक सच्चाइयों को पेश करते थे, उसमें मनोरंजन के साथ साथ तंज़ भी होता था.
भिखारी ठाकुर कभी स्कूल नहीं गए, लेकिन लिखीं 29 किताबें
भिखारी ठाकुर ने स्कूल जाकर कभी पढ़ाई नहीं की लेकिन उन्होंने अपने जीवन में लोकगीतों पर 29 किताब लिखीं जो कैथी लिपि में थीं. इससे ही उनकी प्रतिभा का अंदाजा लगाया जा सकता है. इन किताबों को बाद में देवनागरी लिपि में बदला गया. इनका पूरा संकलन बिहार राष्ट्रभाषा परिषद ने भिखारी ठाकुर रचनावली के नाम से प्रकाशित किया है. इनमें बेटी वियोग, विदेशिया, ननद भौजाई, गबर घिचौर और कलियुग का प्रेम जैसे लोक नाटक बेहद चर्चित हैं.
बेटी वियोग, शादी के बाद घर परिवार से बेटी की विदाई के दुख पर आधारित लोक नाटक है. विदेशिया उस महिला के दर्द की दास्तां है जिसका पति आजीविका कमाने के लिए विदेश (दूसरे राज्य) गया है. ननद-भौजाई, एक बहन और उसके भाई की पत्नी के बीच नोंकझोंक भरे रिश्ते की कहानी है. गबरघिचौर नाटक, एक महिला के सेक्सुअल अधिकारों पर टिप्पणी करता है.
हिंदी साहित्य में भारतेंदु हरिश्चंद्र के नाटकों को जागरण का वाहक माना जाता है. लेकिन उससे काफी पहले भिखारी ठाकुर ने अपने नाटकों में महिलाओं के दर्द और तकलीफ़ को बखूबी उकेरा था. विदेशिया नाटक की महिला किरदार अपने पति को याद करती है. पिया मोरा गैलन परदेस, ए बटोही भैया. रात नहीं नीन, दिन तनी ना चैनवा. भिखारी ठाकुर के लोक नाटकों पर महान हिंदी साहित्यकार राहुल सांकृत्यान ने लिखा है, “हमनी के बोली में कितने जो हवअ, केतना तेज़ बा, इ सब अपने भिखारी ठाकुर के नाटक में देखिला. भिखारी ठाकुर हमनी के अनगढ़ हीरा हवें.”
आज भिखारी ठाकुर की विरासत बचाए रखना जरूरी है
आज भिखारी ठाकुर की विरासत को बचाकर रखना बेहद जरूरी है. राहुल सांकृत्यायन ने ठीक ही कहा है, "भिखारी ठाकुर की कला और साहित्य में सभी गुण विद्यमान हैं. कुछ विश्लेषक शिष्टता के साथ भिखारी ठाकुर की तुलना 16वीं सदी के विख्यात नाटककार शेक्सपियर से करते हैं और उन्हें 'भोजपुरी का शेक्सपियर' के रूप में याद करते हैं. लेकिन शैक्षणिक दृष्टि से यह अधिक विवेकपूर्ण है कि भिखारी ठाकुर को भिखारी ठाकुर ही रहने दिया जाए और भारतीय संदर्भ में उनका अधिक अध्ययन किया जाए. भिखारी ठाकुर के जीवन का बड़ा हिस्सा ग्रामीण इलाकों में आम लोगों को परेशान करने वाले मुद्दों पर जीवंत प्रस्तुतियों में गुज़रा.
राम-सीता, कृष्ण और गणेश से था खास लगाव
उन्होंने और उनकी मंडली ने बिहार, बंगाल, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और नेपाल के कुछ हिस्सों की यात्राएं भी कीं, लेकिन उनकी कला मॉरीशस, गायाना, सूरीनाम, टोबैगो और कई अन्य अफ्रीकी देशों तक पहुंची जहां भारत से गिरमिटिया मज़दूर गए थे.भिखारी ठाकुर अपने परिवेश में रामलीला और रासलीला देखते हुए बड़े हुए थे. जीवन के अंतिम सालों में उन्होंने अपना अधिकांश समय भगवान राम, सीता, कृष्ण और गणेश की भक्ति में बिताए. विरासत में लोक नाटक और लोक कथाओं के विशाल भंडार छोड़कर 10 जुलाई 1971 को पैतृक गांव में भिखारी ठाकुर का निधन हुआ था.