
क्या जस्टिस वर्मा के खिलाफ FIR दर्ज होगी? कैश विवाद मामले में दिल्ली हाईकोर्ट के जज के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई आज
जस्टिस अभय एस. ओका और जस्टिस उज्जल भूइंया की पीठ इस मामले में सुनवाई करेगी. एडवोकेट मैथ्यूज जे. नेदुम्परा द्वारा दायर याचिका में शीर्ष अदालत से 1991 के के. वीरास्वामी फैसले की समीक्षा करने का आग्रह किया गया है, जिसमें भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे न्यायाधीशों को कई सुरक्षा उपाय दिए गए थे. 1991 के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 के तहत 'लोक सेवक' की परिभाषा सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीशों पर लागू होती है. लेकिन इसमें एक अपवाद जोड़ दिया गया है...

दिल्ली हाईकोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के आवास पर कथित रूप से नकदी मिलने के मामले में शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका पर सुनवाई करेगा. सुप्रीम कोर्ट के वकील मैथ्यू नेदुम्परा द्वारा दायर याचिका में एफआईआर दर्ज करने की मांग की गई है और तर्क दिया गया है कि मामले की जांच के लिए तीन जजों की समिति का गठन अनावश्यक है. इसके बजाय, इसमें पुलिस के नेतृत्व में जांच की मांग की गई है.
जस्टिस अभय एस. ओका और जस्टिस उज्जल भूइंया की पीठ इस मामले में सुनवाई करेगी. याचिका में सरकार से न्यायिक भ्रष्टाचार को रोकने के लिए प्रभावी कदम उठाने का भी आग्रह किया गया है, जिसमें न्यायिक मानक और जवाबदेही विधेयक 2010 पर पुनर्विचार करना भी शामिल है.
जस्टिस वीरास्वामी के फैसले की हो समीक्षा
याचिका में कहा गया है कि हमारे जज, एक अल्पसंख्यक को छोड़कर, महान विद्वत्ता, निष्ठा, शिक्षा और स्वतंत्रता वाले पुरुष और महिलाएं हैं, लेकिन ऐसी घटनाओं से इनकार नहीं किया जा सकता है, जहां न्यायाधीश पैसे लेते हुए रंगे हाथों पकड़े गए हैं. के. याचिकाकर्ताओं के अनुसार, जस्टिस वीरास्वामी का फैसला एक फैसला नकदी से जुड़े अपराध में भी एफआईआर दर्ज करने के रास्ते में आड़े आ गया है."
एडवोकेट मैथ्यूज जे. नेदुम्परा द्वारा दायर याचिका में शीर्ष अदालत से 1991 के के. वीरास्वामी फैसले की समीक्षा करने का आग्रह किया गया है, जिसमें भ्रष्टाचार के आरोपों का सामना कर रहे न्यायाधीशों को कई सुरक्षा उपाय दिए गए थे. इस फैसले का उद्देश्य न्यायिक स्वतंत्रता को बनाए रखना था, जिसे 1973 के केशवानंद भारती मामले में संविधान के 'मूल ढांचे' का हिस्सा माना गया था.
क्या है जस्टिस वीरास्वामी का फैसला?
1991 के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने माना कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 के तहत 'लोक सेवक' की परिभाषा सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के न्यायाधीशों पर लागू होती है. हालांकि, इसने यह भी फैसला सुनाया कि हाईकोर्ट के जज के खिलाफ जांच भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) की पूर्व मंजूरी के बिना आगे नहीं बढ़ सकती है, इस प्रकार, न्यायिक जवाबदेही और स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाया जा सकता है.
संविधान के अनुसार, किसी न्यायाधीश पर लोकसभा और राज्यसभा दोनों में दो-तिहाई बहुमत से महाभियोग लगाया जा सकता है. कथित कदाचार की जांच के लिए मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना द्वारा गठित जांच समिति की शुरुआत 1999 में हुई थी, जब संसदीय कार्यवाही से पहले एक मध्यवर्ती कदम के रूप में सुप्रीम कोर्ट ने एक आंतरिक तंत्र स्थापित किया था.
सबूत मिलने पर हो सकती है कार्रवाई
जस्टिस वर्मा के मामले में यदि आंतरिक समिति को कदाचार का सबूत मिलता है, तो उनके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई की जा सकती है, जिससे संसद में महाभियोग प्रस्ताव पर बहस और पारित करने का रास्ता साफ हो सकता है. याचिकाकर्ता का कहना है कि याचिकाकर्ता का तर्क है कि मामले की जांच के लिए तीन न्यायाधीशों की समिति का गठन अनावश्यक है और अब जांच पुलिस द्वारा की जानी चाहिए.
फायर चीफ अतुल गर्ग से पूछताछ
इस बीच दिल्ली फायर सर्विस के निदेशक अतुल गर्ग ने पुलिस द्वारा छह घंटे की पूछताछ के बाद अपना बयान दर्ज कराया है. उनकी गवाही को चल रही जांच में अहम माना जा रहा है.
क्या है नकदी विवाद?
विवाद तब शुरू हुआ जब जस्टिस यशवंत वर्मा के घर में आग लग गई. घटना के समय वे घर पर नहीं थे, लेकिन रिपोर्ट्स में दावा किया गया कि घटनास्थल पर जले हुए नोट मिले हैं. हालांकि, बाद में दिल्ली फायर सर्विस चीफ ने कहा कि आग बुझाते समय कोई नकदी नहीं मिली. इसके बावजूद जज के घर के बाहर कथित तौर पर जले हुए नोट बरामद किए गए, जिससे मामले को लेकर राजनीतिक और कानूनी तूफान और तेज हो गया. अब जब सुप्रीम कोर्ट इस मामले में हस्तक्षेप करने वाला है, तो सभी की निगाहें आज की सुनवाई पर टिकी हैं.