'जनानियों में नहीं होता फैसला करने का दम', महिलाओं के पक्ष में आए फैसलों को पलट रहा तालिबान
अफगानिस्तान की हालत तो सारी दुनिया जानता ही है. देश की सत्ता पर काबिज हुए तालिबान को लगभग तीन वर्ष हो चुके हैं और हर दिन महिलाओं की आज़ादी और हक के लिए तंग होता जा रहा है. तालिबान की नई अदालतों को पिछली अदालतों के फैसलों पर भी यकीन नही है. नई अदालतें पुराने फैसलों को पलट रही हैं. ऐसा हजारों फैसले हैं जिन्हें पलटा गया है और फिर वो महिलाओं की जिंदगियां तबाह कर रहे हैं.
Afghanistan: अफगानिस्तान में जब से तालिबान का राज आया है तभी से महिलाओं के हक मारे जा रहे हैं और सारी दुनिया इस बात को जानते हुई भी कुछ ठोस कदम नहीं उठा पा रही है. उन्हें किस क्षेत्र में नौकरी करनी है और किसमें नहीं ये सभी तालिबानी फैसला करते हैं. उन्हें वकील और जज जैसी नौकरियों के लिए तो बिल्कुल ही अयोग्य ठहरा दिया गया है. तालिबान की दलील है कि फैसले करने के लिए अक्लमंद होना जरूरी है और महिलाओं में ज्यादा अक्लमंदी नहीं होती है. इतना ही नहीं तालिबान से पिछली सरकार के वक्त में किए गए अदालती फैसलों को भी पलटा जा रहा है.
अफगानिस्तान की सत्ता पर काबिज हुए तालिबान को 3 साल हो चुके हैं. हाल ही में बीबीसी उर्दू पर छपी मामून दुर्रानी की एक रिपोर्ट में हैरान कर देने वाले खुलासे हुए हैं. रिपोर्ट के मुताबिक तालिबान का कहना है कि उनके कट्टरपंथी जज न सिर्फ मौजूदा कानूनों को लागू कर रहे हैं, बल्कि पिछले फैसलों की समीक्षा करने और उन्हें पलटने के लिए ओवरटाइम काम कर रहे हैं. जिसके नतीजे में तालिबान की तरफ से थोपे जा रहे शरिया (इस्लामी कानून) के तहत पुराने अदालती मामलों की दोबारा सुनवाई हो रही है, और महिलाएं विशेष रूप से प्रभावित हैं. ऐसे मामलों की संख्या हजारों में है.
'फैसले करने के लिए अक्लमंद होना जरूरी'
हैरानी तो इस बात की है कि पुरानी सरकार के वक्त दिए गए कुछ तलाक के फैसलों को भी पलटा जा रहा है और महिलाओं को फिर से अपने पुराने शौहर के साथ रहने के लिए मजबूर किया जा रहा है. एक तरफ जहां सारी दुनिया में महिलाएं अपने हक के लिए लड़ रही हैं खुद को साबित भी कर रही हैं लेकिन अफगानिस्तान में महिला जजों को बाहर किया जा रहा है. तालिबान का कहना है कि कि 'महिलाएं फैसला लेने लायक नहीं हैं' या इसके तहत योग्य नहीं हैं. शरिया कानून के मुताबिक न्यायपालिका के काम के लिए उच्च बुद्धि वाले लोगों की आवश्यकता होती है.
'बलि का बकरा बनती बच्चियां'
(कुछ जगहों पर रिवाज है कि दो खानदानों की दुश्मनी को खत्म करने के लिए बेटी को 'बलि का बकरा' बना दिया जाता है. यानी दुश्मनी खत्म करने के लिए एक खानदान दूसरे खानदान में अपनी बेटी की शादी करवा दी जाती है.)
रिपोर्ट में एक महिला के साथ घटी सच्ची घटना का जिक्र भी है. रिपोर्ट के मुताबिक एक लड़की जिसका नाम नाज़दाना है और जब वो 7 साल की थी तो उसके पिता पारिवारिक झगड़े को निपटाने के लिए अपनी बेटी के जवान होने के बाद शादी करने के लिए सहमत हो गए. जैसी ही नाज़दाना 15 बरस की हुई तो जिससे उसकी शादी होनी थी वो लेने आ गया. हालांकि नाज़दाना ने इनकार कर दिया और अदालत का दरवाजा खटखटाया. कई वर्षों तक चली अदालती लड़ाई के बाद नाज़दाना केस जीत जाती है. जीत की खुशी में जश्न के तौर पर कुछ लोगों की दावत भी करती है.
तालिबान ने पलटा पुराना फैसला
हालांकि नाज़दाना नहीं जानती थी कि कुछ वक्त बात तालिबान की सरकार आएगी और फिर से उसका मुकदमा खोलकर उसे ही कुसूरवार ठहरा देगी. तालिबान की सरकार आई उसने फिर से उसी शख्स से निकाह करने को कहा जिससे उसने पिछली सरकार के कार्यकाल में छुटकारा पाया था. रिपोर्ट के मुताबिक नाज़दाना के 28 वर्षीय भाई शम्स कहते हैं, "उन्होंने हमसे कहा कि अगर हमने उनकी बात नहीं मानी तो वे मेरी बहन को जबरन उनके (हिकामतुल्लाह) को सौंप देंगे."
देश छोड़कर भागी नाज़दाना:
मजबूर नाज़दाना ने तालिबान के आगे कुछ नहीं कर सकती थी. ऐसे में उसने अदालत थोड़ा समय मांगा और अपने भाई के साथ अपना गृहनगर छोड़कर पड़ोसी देश में चली गई. पड़ोसी देश में जाने के बाद एक वर्ष तक सड़क किनारे एक पेड़ के नीचे रही लेकिन कोई भी उसकी नहीं सुन रहा है. उसका कहना है कि उसने संयुक्त राष्ट्र समेत कई बड़े-बड़े दरवाजे खटखटाए हैं लेकिन किसी ने नहीं सुनी. उसका सवाल है,'क्या मैं एक महिला के तौर पर आजादी की हकदार नहीं हूं?'