हर इक क़यास हक़ीक़त से दूर-तर निकला | 'फ़ज़ा' इब्न-ए-फ़ैज़ी

हर इक क़यास हक़ीक़त से दूर-तर निकला, किताब का न कोई दर्स मोअतबर निकला,

हर इक क़यास हक़ीक़त से दूर-तर निकला

किताब का न कोई दर्स मोअतबर निकला

 

नफ़स तमाम हुआ दास्तान ख़त्म हुई

जो था तवील वही हर्फ़ मुख़्तसर निकला

 

जो गर्द साथ न उड़ती सफ़र न यूँ कटता

ग़ुबार-ए-राह-गुज़र मौज-ए-बाल-ओ-पर निकला

 

मुझे भी कुछ नए तीशे सँभालने ही पड़े

पुराने ख़ोल को जब वो भी तोड़ कर निकला

 

फ़ज़ा कुशादा नहीं क़त्ल-गाह की ये कहाँ

मेरे लहू का परिंदा उड़ान पर निकला

 

वो आदमी के जो महमिल था आफ़ताबों का

ब-क़द्र यक दो कफ़-ए-ख़ाक-रह-गुज़र निकला

 

ये रात जिस के लिए मैं ने जाग कर काटी

मिला वो शख़्स तो ख़्वाबों का हम-सफ़र निकला

 

उढ़ा दी चादर-ए-इस्मत उसे ख़यालों ने

हर एक लफ़्ज़ ज़बाँ से बरहना सर निकला

 

‘फज़ा’ तुम उलझे रहे फ़िक्र ओ फ़लसफ़ें में यहाँ

ब-नाम-ए-इश्क़ वहाँ क़ुरअ-ए-हुनर निकला

calender
24 August 2022, 05:06 PM IST

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