मुँह ढाँप के मैं जो रो रहा हूँ | फ़कीर मोहम्मद गोया

मुँह ढाँप के मैं जो रो रहा हूँ,इक पर्दा-नशीं का मुब्तला हूँ,

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मुँह ढाँप के मैं जो रो रहा हूँ

इक पर्दा-नशीं का मुब्तला हूँ

 

तेरी सी न बू किसी में पाई

सारे फूलों को सूँघता हूँ

 

आईना है जिस्म-ए-साफ उस का

क्यूँकर न कहे मैं ख़ुद-नुमा हूँ

 

इतनी तू जफ़ाएँ कर ने ऐ बुत

आख़िर मैं बंद-ए-ख़ुदा हूँ

 

अब तो मुझे ग़ैब-दाँ कहें सब

मैं तेरी कमर को देखता हूँ

 

बुलबुल है चमन में एक हम-दर्द

मैं भी किसी गुल का मुब्तला हूँ

 

गोया’ हूँ वक़्त का सुलेमाँ

परियों पर हुक्म कर रहा हूँ First Updated : Wednesday, 24 August 2022

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