खोल दी है ज़ुल्फ़ किस ने फूल से रूख़्सार पर
छा गई काली घटा सी आन कर गुल-ज़ार पर
क्या ही अफ़शां है जबीन ओ अबरू-ए-ख़म-दार पर
है चराग़ाँ आज काबे के दर ओ दीवार पर
हम अज़ल से इंतिज़ार-ए-यार में सोए नहीं
आफ़रीं कहिए हमारे दीदा-ए-बेदार पर
कुफ्र अपना ऐन दीं-दारी है गर समझे कोई
इज्तिमा-ए-सुब्हा याँ मौकूफ है जु़न्नार पर
है अगर इरफाँ का तालिब ख़ाक-सारी कर शिआर
देखते हैं आइना अक्सर लगा दीवार पर First Updated : Wednesday, 24 August 2022