Khushwant Singh: खुशवंत सिंह का जन्म 2 फरवरी 1915 में हुआ था और 20 मार्च 2014 को उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा. खुशवंत सिंह एक भारतीय लेखक, वकील, राजनयिक, पत्रकार और राजनीतिज्ञ थे. 1947 के भारत विभाजन के उनके अनुभव ने उन्हें 1956 में 'ट्रेन टू पाकिस्तान' लिखने के लिए प्रेरित किया (1998 में फिल्म बनी), जो उनका सबसे प्रसिद्ध उपन्यास बन गया.
आजादी को खुशवंत सिंह जिस नजर से देखते थे, उसके बारे में उनके उपन्यास (नॉवेल) का एक आम किरदार कड़वी सच्चाई बयान करता है, "आजादी पढ़े-लिखे लोगों के लिए है जिन्होंने इसके लिए लड़ाई लड़ी. हम अंग्रेजों के गुलाम थे. अब हम पढ़े-लिखे हिंदुस्तानियों के गुलाम होंगे या पढ़े-लिखे पाकिस्तानियों के गुलाम होंगे."
खुशवंत सिंह को अपनी सरजमीं से बहुत ज्यादा मोहब्बत थी. इसके बाद भी उन्हें लाहौर और पंजाब छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया गया. वे लाहौर और अपने बचपन के दोस्त मंजूर क़ादिर को हमेशा याद करते रहते थे. मंजूर क़ादिर पाकिस्तान के विदेश मंत्री भी बने थे.
उनके बारे में कहा जाता है कि जब मंजूर क़ादिर की पत्नी दिल्ली आईं तो खुशवंत सिंह बहुत खुश हुए और उन्होंने इलस्ट्रेटेड वीकली के एक कॉलम के सारे कर्मचारियों को छुट्टी दे दी और मंजूर क़ादिर की पत्नी को दिल्ली की सैर करवाई.
बता दें कि पाकिस्तानी मीडिया ने खुशवंत सिंह को लेकर कहा कि, "हिंदुस्तान की सरजमीं पर जीने वाला आखिरी पाकिस्तानी रुख्सत हुआ." पाकिस्तान में जिस तरह से खुशवंत सिंह को याद किया गया, उसका अनुमान लगाना बेहद कठिन है. ये खुशवंत सिंह की खुशनसीबी थी कि उन्होंने ऐसे हिंदुस्तान में जन्म लिया जहां हिंदुओं, मुस्लिमों, सिखों, पारसियों, यहूदियों और ईसाईयों की गंगा-जमुनी संस्कृति पर ब्रिटिश साम्राज्य के साए धूप-छांव का खेल दिखा रहे थे.
ये वही समय था जब हिंदुस्तानी उच्च वर्ग ने ऐसी जिंदगी गुजारी जो सपनों जैसी थी. एक ओर गरीब, पिछड़े हुए और अपनी आजादी के लिए आवाज उठाने वाली भारतीय जनता और दूसरी ओर वो अमीरी थी जिनके बारे में बड़ी बूढ़ियां ये कहती थीं कि उनके तो कुत्ते भी हलवा और मेवा खाते हैं.
खुशवंत सिंह बाबा गुरुनानक की उस परंपरा से जुड़े हुए थे, जिसमें बाबा फरीद-उद्दीन गंजशाकर के शेरों को पांचवें गुरु अजरुन सिंह ने संग्रहीत किया और फिर उन्हें गुरुग्रंथ साहब में शामिल कर दिया. हर सिख का ये धार्मिक कृत्य है कि वो बाबा फरीद-उद्दीन गंजशाकर के कलाम की उसी तरह देखभाल करे जैसे गुरुग्रंथ साहब की होती है.
खुशवंत सिंह जानते थे कि अमृतसर में गुरुद्वारा हरमंदिर साहिब की नींव हजरत मियां के हाथों रखने का आमंत्रण गुरु अजरुन देव ने दिया था और ये नींव मियां मीर और गुरु अजरुन सिंह ने रखी थी. खुशवंत सिंह ने एक बेहतरीन उपन्यास लिखा. यह उपन्यास इस शहर से मोहब्बत के बिना नहीं लिखा जा सकता था. इस उपन्यास के बारे में खुशवंत सिंह ने लिखा है कि छह शताब्दी की इस कहानी को मैंने 25 साल में लिखा है.
इस उपन्यास को लिखने के लिए खुशवंत सिंह इस शहर की गलियों, बाजारों, सब जगहों की ख़ाक छानी. जैसे कि उजड़ी हुई मस्जिदें, वीरान मजारें और आश्रम. दिल्ली से गुजरने वाली छह शताब्दी की कहानी लिखकर खुशवंत सिंह ने इसे पढ़ने वालों से उम्मीद की है कि वो इस शहर की आत्मा को पहचानें और ये जानने की कोशिश करें कि यहां खून की नदियां कैसे बही.
दिल्ली में नादिर शाह की फौज के कत्लेआम करने के बाद एक तवायफ नूरबाई, नादिर शाह से यह पूछती है कि, "हुजूर आपने इतने कत्ल कर दिए, मगर क्यों?" इस सवाल के जवाब में नादिर शाह नूरबाई के सामने अपना सर झुका देते हैं. इस उपन्यास में कभी नादिर शाही तो कभी गोरा शाही, कभी महात्मा गांधी तो कभी इंदिरा गांधी के कत्ल के बारे में बताया गया है. First Updated : Thursday, 01 February 2024