माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर... जीवन को सही राह दिखाते हैं कबीर के ये दोहे

kabir ke dohe: संत कबीर दास ने अपने दोहों के माध्यम से जीवन जीने की कई सीख दी हैं. उन्होंने अपने दोहे के माध्यम से सुझाव दिया है कि सत्य उस व्यक्ति के पास है जो धार्मिकता के मार्ग पर है और जो सभी जीवित और निर्जीव को ईश्वर मानता है. अगर आप निष्क्रिय रूप से दुनिया के मामलों से अलग है और अपनी राह से भटक गए हैं तो एक बार जरूर कबीर के दोहे को पढ़ें. कबीर के लिखे दोहे इतने सरल भाषा में हैं कि आप आसानी से समझ सकते हैं.

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Kabir Das ke dohe: भारतीय रहस्यवादी कवि और संत के रूप में प्रसिद्ध कबीर दास ने हमेशा लोगों को धर्म की राह पर चलने के लिए प्रेरित किया है. संत कबीर का उत्तर प्रदेश के वाराणसी शहर में जन्मे कबीर संगठित धर्मों के आलोचक के रूप में जाने जाते हैं. उन्होंने सभी धर्मों की निरर्थक और अनैतिक प्रथाओं पर सवाल उठाया. खास कर  हिंदू धर्म और इस्लाम में गलत प्रथाओं पर सवाल उठाया है. यही वजह है कि, उन्हें अपने जीवनकाल के दौरान अपने विचारों के लिए हिंदुओं और मुसलमानों दोनों से धमकियां भी मिली हैं.  

संत कबीर ने हमेशा अपने दोहे के माध्यम से ये सुझाव दिया है कि सत्य को जानने के लिए, "मैं", या अहंकार को छोड़ दें. कबीर की विरासत कबीर पंथ ("कबीर का मार्ग") के माध्यम से जीवित है और जारी है. इस बीच आज हम आपको कबीर के कुछ ऐसे दोहे पेश करने जा रहे हैं जो जीवन को सही राह दिखाते हैं.

पेश है कबीर के 5 मोटिवेशनल दोहे

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर

अर्थ- कबीर के इस दोहे का मतलब है कि कोई इंसान लंबे समय तक हाथ में मोदी की माला तो घुमाता है लेकिन उसके मन का भाव नहीं बदलता है. उसके मन में चल रही हलचल शांत नहीं होती. कबीर ने ऐसे व्यक्ती को सलाह दिया है कि हाथ की इस मामला को फेरना छोड़कर मन के मोतियों बदलो या फेरो तभी तुम सही राह पर चल पाओगे.

तन को जोगी सब करें, मन को बिरला कोई
सब सिद्धि सहजे पाइए, जे मन जोगी होइ

अर्थ- कबीर ने इस दोहे के माध्यम से लोगों को ये समझाने की कोशिश की है कि, शरीर में भगवे रंग का वस्त्र धारण करना आसान है लेकिन मन को योगी बानाना बिरले ही व्यक्तियों का काम है. अगर मन योगी हो जाए तो सारी सिद्धियां सहज ही प्राप्त हो जाती हैं.

जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाही
सब अँधियारा मिट गया दीपक देखा माही

अर्थ- कबीर कहते हैं कि जब मैं अपने अहंकार में डूबा था  तब प्रभु को न देख पाता था, लेकिन जब गुरु ने ज्ञान का दीपक मेरे भीतर प्रकाशित किया तब अज्ञान का सब अंधकार मिट गया. ज्ञान की ज्योति अहंकार जाता रहा और ज्ञान के आलोक में प्रभु को पाया.

बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर
पंछी को छाया नहीं फल लागे अति दूर

अर्थ- कबीर ने इस दोहे के माध्यम से वैसे लोगों के बारे में बताया जिसके पास है तो सब कुछ लेकिन इससे किसी को लाभ नहीं है. उन्होंने उदाहरण दिया है कि, खजूर के पेड़ इतना बड़ा होता लेकिन फिर भी इसका कोई लाभ नहीं है न तो ये छांव देता है और ना ही उसके फल सुलभ लायक होते हैं.

शब्द विचारी जो चले, गुरुमुख होय निहाल
काम क्रोध व्यापै नहीं, कबूँ ने ग्रासै काल

अर्थ- कबीर दास इस दोहे के माध्यम से बताना चाहते हैं कि, गुरुमुख शब्दों का विचार जो आचरण करता है वह कृतार्थ हो जाता है. ऐसे व्यक्ती को कभी बी काम क्रोध नहीं सताते हैं और न ही वह कभी मन कल्पनाओं के मुख में पडते हैं. First Updated : Monday, 08 July 2024