Mirza Ghalib Birth Anniversary: मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू भाषा के ऐसे शायर थे, जिनके दोहे किसी भी मौके पर इस्तेमाल किये जा सकते हैं. अपने प्रिय से मिलने की खुशी हो या बिछड़ने का गम या कल्पना की उड़ान, आज भी युवा पीढ़ी के बीच गालिब की शायरी काफी पसंद की जाती है. ग़ालिब की प्रेम की समझ कितनी गहरी थी यह उनकी कविताओं से ही पता चलता है. आज भी ग़ालिब के दोहों से प्यार का इज़हार किया जाता है और जब दिल टूटता है तो ग़ालिब के दोहे मरहम का काम करते हैं.
कहा जाता है कि ग़ालिब शायरी नहीं लिखते थे बल्कि शब्दों से जादू करते थे. इसीलिए जब भी शायरी का जिक्र होता है तो गालिब का नाम जरूर लिया जाता है. ग़ालिब अपनी ग़ज़लों और शायरी में हमेशा ज़िंदा रहेंगे. क्योंकि ग़ालिब एक ऐसी अनोखी शख्सियत हैं जो वक्त की धूल में कभी गुम नहीं हो सकते. ग़ालिब ने बनारस के लिए एक लाइन लिखी थी जिसको आज भी लोग पड़ते हैं तो वो दिल को छू जाती है.
जब ग़ालिब दिल्ली से कलकत्ता, कलकत्ता से लखनऊ और लखनऊ से बनारस पहुंचे, तो उन्होंने शहर में जीवन और मृत्यु का जो उत्सव देखा, उसको देखकर उन्होंने एक शेर कहा-
तआलिल्ला बनारस चश्मे बददूर
बहिश्ते खुर्रमो फ़िरदौस मामूर
अपने शेर के जरिए उन्होंने कहा था कि, हे भगवान इस शहर को बुरी नज़र से बचाकर रखना...ये नन्दित स्वर्ग है, भरा-पूरा स्वर्ग है.
उस वक्त दिल्ली में मुगलों का राज खत्म हो चुका था. ब्रिटिश सरकार ने भारत पर राज करना शुरू कर दिया था. इसके साथ ही ब्रिटिश सरकार ने गालिब की पेंशन भी बंद कर दी थी. उस वक्त ग़ालिब कर्जदार हो गए थे. निराश होकर, वह अपनी पेंशन बहाल कराने के प्रयास में ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों से संपर्क करने के लिए कलकत्ता गए और फिर बनारस लौट आए.
ज़बस अर्ज़े तमन्ना मी कुनद गंग
ज़ मौजे आवहा बा मी कुनद गंग
इस शेर में उन्होंने बनारस की खूबसूरती देखकर कहा कि गंगा के मन में भी इच्छा होती है कि आऊं और मेरी लहरों में स्नान कर लूं जो मैंने तुम्हारे लिए बनाई गई है.
First Updated : Wednesday, 27 December 2023