Mirza Ghalib Death Anniversary: शादीशुदा होने के इश्क कर बैठे थे मिर्जा गालिब, महबूबा की मौत पर लिखी थी ये गजल
Mirza Ghalib Death Anniversary: उर्दू और फारसी के महान शायर मिर्जा गालिब 15 फरवरी 1869 को हमेशा के लिए इस दुनिया को अलविदा कह गए. आज उनका पुण्यतिथि है तो चलिए इस खास मौके पर उनकी प्रेम कहानी के दिलचस्प किस्से जानते हैं.
Mirza Ghalib Love Story: प्यार, इश्क मोहब्बत पर गजलें और शेर लिखने वाले मिर्जा गालिब उर्दू भाषा का सर्वकालिक महान शायर थे. मिर्जा गालिब को पढ़ना मतलब प्यार और जिंदगी को पढ़ना है. उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में जन्मे गालिब की शादी बहुत कम यानी 13 वर्ष की उम्र में हो गई थी. उनकी बेगम का नाम उमराव जान था.
हालांकि, शादीशुदा होने के बावजूद भी उनका नाम कई महिलाओं के साथ जुड़ा था. कहा जाता है कि, उन्होंने अपनी महबूबा के मौत पर एक गजल भी लिखे थे. तो चलिए आज उनकी प्रेम कहानी के दिलचस्प किस्से जानते हैं.
अपनी शादी से खुश नहीं थे गालिब
मिर्जा गालिब की शादी बेहद कम उम्र में उमराव जान फिरोजपुर जिरका के नवाब इलाही बख्शी की भतीजी थी. हालांकि इस शादी से ग़ालिब खुश नहीं थे जिसको लेकर कई किस्से हैं. उन्होंने अपने एक खत में अपनी शादी को दूसरी कैदी बताया था. गालिब के सात बच्चे हुए थे लेकिन उनका कोई भी बच्चा ज्यादा समय तक जिंदा नहीं रह पाया. शायद यही वजह थी कि, उन्हें अपनी बीवी से प्यार नहीं था.
गालिब के प्यार के किस्से
गालिब ने अपनी कलम की जादू से कितनों के दिल धड़काए हैं. उन्होंने अधूरे प्यार और जिंदगी के अनकहे दर्द पर कई गजलें और शेर लिखे लिखे जो आज भी मशहूर है. गालिब ने एक लिखा है, मोहब्बत में नहीं है फर्क जीने और मरने का, उसी को देख कर जीते हैं, जिस काफिर पे दम निकले. प्यार पर लिखे गए इस शेर के कई मायने हैं जिसमें उनका प्यार अपनी महबूबा के लिए झलकता है. गालिब का नाम एक ऐसी लड़की से जुड़ा था जो जो महफिलों में गाना गाती थी और नाचती थी. उस लड़की का नाम था मुगल जान जिसके महफिल में अक्सर वो समय बिताने के लिए जाते थे. हालांकि, दुर्भाग्य से वो ज्यादा लंबी उम्र तक वह जी न पाई और कम उम्र में उसका निधन हो गया.
इस महबूबा की मौत के बाद बीमार पड़ गए गालिब
मुगल जान की मौत के बाद भी गालिब को कई लड़कियों से प्यार हुआ लेकिन उन्हें सबसे ज्यादा लगाव उस महिला से हुआ जो उनकी शेरो-शायरी की दीवानी थी और खुद भी शेर कहा करती थीं. कहा जाता है कि, दोनों के बीच जज्बात से लेकर जिस्मानी सोहबत हासिल थी. एक दो जगह इस महिला का जिक्र गालिब तुर्क महिला के नाम से हुआ है हालांकि इसका असली नाम कभी सामने नहीं आया.
दोनों का रिश्ता चोरी-चोरी चुपके-चुपके आगे बढ़ता गया लेकिन एक समय ऐसा आया कि, इस रिश्ते पर बदनामी का बदनुमा दाग लग गया. हालात, यहां तक पहुंच गया कि, समाज में बदनामी के डर से उस महिला ने अपनी जिंदगी बलिदान करना ही सही समझा. हालांकि, इस वाक्य ने गालिब को बेहद दर्द में डाल दिया जिसकी वजह से वो बीमार पड़ गए. कहा जाता है कि, इस महबूबा की याद में गालिब ने गजल भी लिखी थी.
महबूबा की मौत पर लिखी थी ये गजल
दर्द से मेरे है तुझ को बे-क़रारी हाए हाए
क्या हुई ज़ालिम तिरी ग़फ़लत-शिआरी हाए हाए
तेरे दिल में गर न था आशोब-ए-ग़म का हौसला
तू ने फिर क्यूँ की थी मेरी ग़म-गुसारी हाए हाए
क्यूँ मिरी ग़म-ख़्वार्गी का तुझ को आया था ख़याल
दुश्मनी अपनी थी मेरी दोस्त-दारी हाए हाए
उम्र भर का तू ने पैमान-ए-वफ़ा बाँधा तो क्या
उम्र को भी तो नहीं है पाएदारी हाए हाए
ज़हर लगती है मुझे आब-ओ-हवा-ए-ज़िंदगी
या'नी तुझ से थी इसे ना-साज़गारी हाए हाए
गुल-फ़िशानी-हा-ए-नाज़-ए-जल्वा को क्या हो गया
ख़ाक पर होती है तेरी लाला-कारी हाए हाए