Faiz Ahmad Faiz ने क्यों लिखी थी 'हम देखेंगें', इस नज्म की वजह से लोगों के घरों पर पड़े छापे
Faiz Ahmad Faiz: सोशल मीडिया पर आपने कभी ना कभी 'हम देखेंगे' नज्म जरूर सुनी होगी. आखिर यह नज्म क्यों इतनी सुर्खियों में रहती है, जानिए
Faiz Ahmad Faiz: एक शायर अपने आसपास के माहौल को कलम के जरिए कागज पर उतारता है. यही वजह है कि एक साहित्यकार को समाज का आईना भी कहा जाता है. तारीख में ऐसे कई बड़े नाम मिल जाएंगे जिन्होंने अपने कलम के फन से इंकलाब बरपा दिया. आज हम जिस नज्म की बात कर रहे हैं वो 'हम देखेंगे'. पाकिस्तानी शायर फैज़ अहमद फैज़ के ज़रिए लिखी यह नज़्म आज भी प्रोदर्शनों में देखने को मिल जाती है. फैज़ अहमद फैज़ की शायरी में जमाने के हालात, फिक्र और अवाम पर होने वाले जुल्मों के निशान मिल जाते हैं.
आज फैज़ अहमद फैज़ का जन्मदिन है, इस मौके पर हम आपको 'हम देखेंगे' के पीछे की कुछ दिलचस्प बातें बताने जा रहे हैं. शायद नौजवान नस्ल ने इस नज्म को केंद्र सरकार ज़रिए लाए गए नागरिकता कानून के खिलाफ प्रदर्शनों में सुनी होगी. लेकिन इस नज्म का इतिहास बहुत पुराना है.
इस नज्म को शोहरमत कब मिली:
इंकबाल जिंदाबाद के लगे नारे:
इकबाल बानो ने जैसे ही यह नज्म खत्म की तो बड़ी तादाद में लोगों ने उनसे दोबारा गाने के लिए कहा. लोगों की यह अपील इतनी बड़ी तादाद में थी कि इकबाल बानो इनकार ना कर पाईं और उन्होंने फिर से इस नज्म को गाया. इस नज्म को गाने के बाद वहां मौजूद लोगों में इतना जोश आ गया था कि 'इंकलाब जिंदाबाद' के नारे लगने लगे थे. तालियों और नारों की गूंज से आसपास का माहौल का गरमाया हुआ था.
लोगों के घरों पर मारे गए छापे:
यह वह दौर था जब पाकिस्तान में मार्शल लॉ की वजह से राजनीतिक गतिविधियों और अभिव्यक्ति की आजादी पर पाबंदी लगा दी गई थी. घुटन के इस माहौल में इस नज्म ने वहां के लोगों को एक नये जोश से भर दिया. लेकिन कहानी यहीं ख़त्म नहीं होती. उनका कहना है कि अल-हमरा में नज्म गाने के मौके पर बने माहौल की जानकारी सरकार को हो गई. जनरल ज़ियाउलहक की तानाशाही के दौरान ऐसे 'बगावती नज्म' की इजाज़त कैसे दी जा सकती थी? इसलिए, कॉन्सर्ट की रात, फ़ैज़ मेले के आयोजकों के घर पर छापा मारा गया.
1979 में लिखी गई थी 'हम देखेंगे':
ना सिर्फ लोगों के घरों पर छापे मारे गए बल्कि कंसर्ट के दौरान हुई रिकॉर्डिंग को जब्त करके तबाह कर दिया गया था. हालांकि हैरानी की बात यह है कि अलहमरा के एक टेक्नीशियन ने भी इस नज्म को रिकॉर्ड कर लिया था. जो आज तक महफूज़ है. फैज़ अहमद फैज़ ने यह नज्म 1979 में लिखी गई थी लेकिन अल हमरा में इस प्रोग्राम के बाद इसे ज्यादा शोहर मिली थी.
क्यों लिखी गई 'हम देखेंगे':
यह इकलौती कविता है जो फ़ैज़ ने जनवरी 1979 में अपने अमेरिका में रहने के दौरान ईरानी क्रांति के लिए लिखी थी. यह महज इत्तेफाक नहीं है कि जनवरी की आखिरी तारीख थी खुमैनी ने पेरिस से तेहरान की यात्रा पर थे. उन दिनों ईरान का बादशाह दरबदर घूम रहा था और यही वे दिन थे जब फ़ैज़ भी निर्वासन का लिबास पहने हुए अलग-अलग देशों में आ-जा रहे थे. फैज़ अहमद फैज़ ईरान के राजशाही विरोधी आंदोलन में काफी दिलचस्पी रखते थे. इसकी एक मिसाल 1953 में भी देखने को मिलती है, जब वो जेल में थे और उन्होंने ईरानी छात्रों के नाम दिल छू लेने वाली नज्म लिखी थी. उस समय प्रधानमंत्री मोसादेघ को फाँसी देकर राजा को दोबारा ईरान की गद्दी पर बैठाया गया. यह सब करने में ताज और तख्त उलटे जा रहे थे. फैज़ अहम फैज़ के लिए यह काफी था. जिसका जिक्र उन्होंने 'हम देखेंगे' नज्म में भी किया है.
यहां पढ़िए हम देखें:
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिस का वादा है
जो लौह-ए-अज़ल में लिख्खा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गिराँ
रूई की तरह उड़ जाएँगे
हम महकूमों के पाँव-तले
जब धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम के सर-ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज़-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ाएब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अनल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज करेगी ख़ल्क़-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो