भगवान श्रीकृष्ण योग किसे कहते हैं, भगवदगीता में योग किसे कहा गया है। योग के बारे में श्रीकृष्ण कह रहे हैं कि सिद्धि और असिद्धि में जो समत्व है वही योग है। पहले हमने योग को समझा है महर्षि पतंजलि के अनुसार कि जो हमारी आत्मा में मल जमा है और जब वो मल आसन, प्राणायाम विधियों के द्वारा या भगवत कृपा से निष्कासित हो जाता है और आत्मा को जो स्वरूप है वो वास्तविक स्वरूप में आ जाता है तो वही योग है। जब सारी चित्त वृतियों का निरोध हो जाए और आत्मा शुद्ध बचे तो वह परम विशुद्ध चैतन्य वही परमात्मा है वही योग है। यहां भगवान कृष्ण कह रहे हैं कि जब लाभ-हानि, जीवन-मरण, जय-पराजय में समान भाव आ जाए वही योग है।

दरअसल जीवन जीने के दो ढंग सनातन परंपरा में हैं। एक है गृहस्थ जीवन जीना, सांसारिक समस्त कर्मों का पालन करना दूसरा है इस संसार को छोड़कर, इस गृहस्थाश्रम को छोड़कर जंगलों में निवास करना, वल्कल वस्त्र धारण करना, आश्रमों में निवास करना। बहुत समय तक ये माना जाता रहा कि योगी वही है संन्यासी वही है, ज्ञानी वही है, ऋषि वही है जो गृहस्थ आश्रम को छोड़कर जंगलों में निवास करता है। संन्यासी उसी को माना जाएगा जिसने गृहस्थ आश्रम से संन्यास ले लिया।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा नहीं, जिसका कर्मों में आसक्ति का परित्याग नहीं हुआ है, काम में कर्मों का जिसने परित्याग नहीं किया है वो संन्यासी नहीं है जिसने काम में कर्मों का परित्याग कर दिया है वही संन्यासी है। जिस व्यक्ति के अंदर हर्ष होता है अच्छे परिणाम देखकर खुश हो जाता है, बुरे परिणाम देखकर दुखी हो जाता है।

कोशिश करता है कि मुझे सफलता हाथ लग जाए, असफलता से डरता है ऐसा व्यक्ति योगी नहीं है। इस घर में रहकर इस संसार को प्राप्त करके, गृहस्थ आश्रम में रहकर भी व्यक्ति योगी बन सकता है। आज हम योग का तात्पर्य आसन से लगाते हैं। आसन शरीर को स्वस्थ रखने का एक साधन है या हम यूं कहें कि योग परंपरा में समाधि तक पहुंचने के लिए एक साधन है।