ॐ लोक आश्रम: स्थितप्रज्ञ की क्या भाषा होती है? भाग-3

एक कहानी है स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस जी की। वो जिसको छू देते थे जिसको देख देते थे जिसको आशीर्वाद दे देते थे उसके रोग ठीक हो जाते थे। उन्हें खुद के गले में कैंसर था।

Saurabh Dwivedi
Saurabh Dwivedi

एक कहानी है स्वामी विवेकानंद के गुरु रामकृष्ण परमहंस जी की। वो जिसको छू देते थे जिसको देख देते थे जिसको आशीर्वाद दे देते थे उसके रोग ठीक हो जाते थे। उन्हें खुद के गले में कैंसर था। एक अंग्रेज पत्रकार आईं और उसने उनसे कहा कि स्वामी जी आपके पास रोजाना हजारों लोगों की भीड़ आती है आप लोगों को आशीर्वाद भी देते हैं उन्हें ठीक भी करते हैं। आप अपने आप को ठीक क्यों नहीं करते आपको तो बड़ा कष्ट हो रहा होगा। आपके गले में कैंसर है कितना दर्द होता होगा।

रामकृष्ण परमहंस ने कहा कि दर्द मुझे नहीं, दर्द इसे हो रहा है और इसका जो दर्द है वो इसको ही भोग करना है क्योंकि कर्म इसी ने किए हैं। जो सिद्ध व्यक्ति है वो अपने शरीर को अपने आप से अलग महसूस करने लगता है और जब शरीर अपने आप से अलग महसूस करने लगता है तो वह कष्ट उसे कष्ट नहीं देते। शरीर का दुख आत्मा को दुख नहीं देता और व्यक्ति ये समझ जाता है कि ये दुख क्षणिक है दुख खत्म होने वाला है और दुख को भोग लेना ही दुख को समाप्त कर देना ही दुख का आत्यांतिक रूप से परित्याग करना है क्योंकि दुख हमारे बुरे कर्मों का ही परिणाम है। अपने जीवन को इस तरह जीना है इतना तटस्थ हो जाना है जिस तरह रामकृष्ण परमहंस हो गए अपने शरीर से भी तटस्थ हो गए।

उन्होंने कहा कि मुझे नहीं इसे दर्द हो रहा है चूंकि इसने कर्म किए हैं तो इसका परिणाम भी इसे भी भोगना है तो जीवन जीने का यही ढंग है और भगवान कृष्ण अर्जुन का यह बता रहे हैं कि सभी कामनाओं का परित्याग कर लो अगर उस अवस्था में पहुंचना है जहां व्यक्ति सिद्धियों को पाकर उन समस्त सिद्धियों से ऊपर पहुंच जाता है तो उसके लिए एक ही रास्ता है समस्त कामनाओं का परित्याग और अपने आप में ही आप से संतुष्ट। यह एक अवस्था है जो स्थितप्रज्ञ की होती है और स्थितप्रज्ञ का बड़ा आगे वर्णन किया भगवान श्रीकृष्ण ने कि किस तरह की वो अवस्था होती है कि जब न सुखी होता है न दुखी होता है। जिस तरह व्यक्ति दुख से दुखी नहीं होता और सुखों की इच्छा नहीं रखता ऐसा व्यक्ति स्थितप्रज्ञ होता है। जिस तरह कछुआ अपने अंगों को अंदर कर लेता है उसी तरह जो स्थितप्रज्ञ व्यक्ति होता है वह विषयों से अपनी समस्त इन्द्रियों को समेट लेता है।

हमारी आंख अच्छा देखना चाहती है, जुबान सुस्वाद भोजन करना चाहती है नाक अच्छी सुगंध लेना चाहती है, त्वचा अच्छा स्पर्श करना चाहती है। हम अपने इन्हीं कर्मेंन्द्रियों के माध्यम से सुखों का उपभोग करते हैं और सुख न मिलने पर असफल होने पर हम दुखों का भी उपभोग करते हैं। ये इन्द्रियां ही हैं जो विषयों से लिप्त होकर हमें सुख और दुख देती हैं। जब हम इन इन्द्रियों को मन से कंट्रोल करते हैं और धीरे-धीरे कछुए की तरह ये इन्द्रियां मन के अंदर अन्तर्मुखी हो जाती है अपने अंदर देखती हैं केवल परमात्मा का ही अंदर दर्शन करती हैं ऐसी अवस्था आनंद और परम आनंद की अवस्था होती है स्थितप्रज्ञ उसी अवस्था में पहुंच जाता है। यही जीवन का परम लक्ष्य है कि हम वहां तक पहुंच सकें। अर्जुन को समझाते हुए भगवान श्रीकृष्ण यही कहते हैं कि यह जीवन का अपना आदर्श रखोगे तो जीवन में कोई दुख तुम्हें नहीं आएगा और  परम आनंद की अनुभूति तुम्हें होती रहेगी।

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23 March 2023, 03:44 PM IST

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