ॐ लोक आश्रम: लोग आत्महत्या जैसा कदम क्यों उठाते हैं? भाग-1
आत्महत्या सारे समाज में, सारे संसार में निंदित है। जीवन की शुरुआत के साथ ही सबसे पहली प्रवृत्ति जो जीव के अंदर आती है वह जीवन की रक्षा की प्रवृत्ति।
आत्महत्या सारे समाज में, सारे संसार में निंदित है। जीवन की शुरुआत के साथ ही सबसे पहली प्रवृत्ति जो जीव के अंदर आती है वह जीवन की रक्षा की प्रवृत्ति। चाहे वो एक सेल का प्राणी अमीबा हो चाहे वह वायरस ही हो। वो अपनी जीवन की रक्षा सबसे पहले करता है चाहे उसमें बाकी कोई प्रवृत्ति विकसित हुई हो या नहीं हुई हो ये प्रवृत्ति सबसे पहले विकसित होती है उसमें। अगर प्रकृति का सबसे विकसित प्राणी मनुष्य अगर आत्महत्या कर रहा है वो अपनी मूल प्रवृत्ति के विरुद्ध जा रहा है तो ये चिंतनीय बात है।
यह तभी हो सकता है कि जब उसके जीवन के सारे विकल्प खत्म हो गए हों। वह जिस आधार पर खड़ा है उसे वो आधार ही झूठा लगने लगे और यह लगने लगे कि जीवन में दुखों के अलावा कुछ है ही नहीं इसलिए जीवन का समाप्त कर देना ही सर्वोत्तम उपाय है। जो व्यक्ति आत्महत्या करते हैं उनमें दो तरह के लोग होते हैं। एक व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनको अचानक झटका लगता है कभी प्रेम में उनको धोखा मिलता है, इस तरह की मनोदशा होती है कि वो संभल नहीं पाते और उन्हें लगने लगता है कि जीवन में जीने से कोई फायदा नहीं और जीवन को खत्म कर देना ही एक मात्र दुखों से बचने का उपाय है।
दूसरे ऐसे लोग होते हैं जो धीरे-धीरे नकारात्मक चिंतन के प्रकोप में आ जाते हैं, अवसाद का शिकार हो जाते हैं और धीरे-धीरे वो हर दिन अपने नकारात्मक विचारों से अपनी हत्या करते रहते हैं और एक दिन ऐसा आता है कि हम देखते हैं कि वो अपने शरीर को उसने खत्म कर दिया, फांसी लगा ली, जहर खा लिया, ऊपर से कूद गया कोई भी विधि हो सकती है। दो तरह के लोग होते हैं जो कि आत्महत्या करते हैं। भगवदगीता कहती है कि जो व्यक्ति अपनी हत्या करता है इस शरीर की हत्या करता है वो व्यक्ति प्रेत योनि में चला जाता है। हम क्या हैं, हम यह शरीर नहीं हैं।
यह शरीर एक हार्डवेयर है इस शरीर के अंदर एक सॉफ्टवेयर है जिससे यह शरीर चलता है और जब यह सॉफ्टवेयर उस हार्डवेयर को छोड़ देता है तो हम कहते हैं कि ये देह नष्ट हो चुकी है यह व्यक्ति मृत्यु को प्राप्त हो गया है। जो हमारा सॉफ्टवेयर है शास्त्र कहते हैं कि ये मेरा सूक्ष्म शरीर है। हम जो भी कर्म करते हैं वह कर्म संस्कारों को उत्पन्न करता है और वो संस्कार हमारे सूक्ष्म शरीर से चिपक जाते हैं। जो भी हमारे सकाम कर्म हैं जिस कर्म को हमने अपनी इच्छा से किया है उस कर्म को करने से पहले जो हमारी नीयत थी वो नीयत तय करती है कि वो काम हमारा अच्छा था या बुरा था। उसी तरह का संस्कार हमारी आत्मा के साथ हमारे जीव के साथ चिपक जाते हैं हमारे सूक्ष्म शरीर के साथ चिपक जाते हैं।