ॐ लोक आश्रम: लोग आत्महत्या जैसा कदम क्यों उठाते हैं? भाग-3

उन्हें शाम में क्या खाना है इसकी चिंता नहीं होगी, हमारे बेटे की क्या परेशानी है इसकी चिंता नहीं होगी। ऐसे व्यक्तियों के अंदर नकारात्मक विचार प्रवेश करते हैं। इसलिए हमारे यहां आश्रम की व्यवस्था की गई है। जीवन को आश्रमों में बांटा गया।

Saurabh Dwivedi
Saurabh Dwivedi

उन्हें शाम में क्या खाना है इसकी चिंता नहीं होगी, हमारे बेटे की क्या परेशानी है इसकी चिंता नहीं होगी। ऐसे व्यक्तियों के अंदर नकारात्मक विचार प्रवेश करते हैं। इसलिए हमारे यहां आश्रम की व्यवस्था की गई है। जीवन को आश्रमों में बांटा गया। आश्रम का मतलब है श्रम पर्यंत। जीवन में आप जब भी हो आपको श्रम करना है आपको मेहनत करनी है। जो भी कार्य हम करते हैं हमारा हर कार्य परिणाम उत्पन्न करता है। इसी तरह जो भी हम भोजन करते हैं हमारी बॉडी टॉक्सिन्स बनाती है और हमारा शरीर उस टॉक्सिन्स को बाहर निकाल देता है। इसी तरह हम जो भी विचार करते हैं उससे भी टॉक्सिन्स बनते हैं वो निगेटिविटी के रूप में हमारे दिमाग में चले जाते हैं। या तो हम दूसरे के ऊपर अत्याचार करते हैं दूसरे को दुख देते हैं और अपने उस नकारात्मक विचार को हटा देते हैं अगर हम वो नहीं कर पाते तो वो नकारात्मक विचार हमारे ही ऊपर प्रभावी हो जाते हैं और हमें ही नष्ट करने लगते हैं और एक दिन धीरे-धीरे हम खुद भी नष्ट हो जाते हैं।

व्यक्ति अगर चाहता है कि वो नकारात्मक विचारों के चंगुल में न फंसे, अवसाद का शिकार न हो तो उसे शारीरिक श्रम करना चाहिए, शारीरिक श्रम बहुत महत्वपूर्ण है और जो भी लोग हैं परिवार के समाज के उनको देखना चाहिए उनके लोग पर्याप्त रूप से शारीरिक श्रम करे। अपने बच्चों के लिए इतना सुविधाजनक माहौल नहीं बना देना चाहिए कि वो शारीरिक श्रम शून्य करे शारीरिक श्रम करे ही ना। क्योंकि जब व्यक्ति शारीरिक श्रम करता है तो कुछ केमिकल रिलीज होते हैं जो उनके नकारात्मक विचार को संतुलित कर देते हैं। जो आश्रम व्यवस्था थी उसका बड़ा महत्व है। हमारी जो सभ्यता-संस्कृति है वो त्योहारों की सभ्यता-संस्कृति है। हमेशा कोई न कोई त्योहार आते रहता है। लाइफ को सेलिब्रेट करते रहते हैं। आप अकेले में नहीं जी सकते समाज के साथ जीते हैं।

त्योहार का तात्पर्य ही है समाज के साथ जीना। आदिम समाज में आपको आत्महत्या नहीं दिखाई देगी। जनजातियों में आपको आत्महत्या शून्य दिखाई देगी। जो विकसित से विकसित समाज में उनमें आत्महत्या का प्रतिशत ज्यादा से ज्यादा होता जाएगा क्योंकि विकसित समाज ने व्यक्ति को अकेला बना दिया है। व्यक्ति अपने सुख-दुख किसी के साथ बांट नहीं सकता। इतनी नजदीकियां किसी के साथ बन ही नहीं पाती। समाज ने जो व्यवस्था बनाई थी त्योहारों के माध्यम से व्यक्ति को व्यक्ति के पास लाने की, अपने दिलों की बात बताने की  वो व्यवस्था खत्म हो गई। जो आदिम समाज है उनमें आज भी वो व्यवस्था जारी है। साथ में लोग रहते हैं साथ में लोग खाते हैं।

हम साथ रहें, साथ में खाएं, सबकुछ साथ में करें और सब लोग साथ में काम करेंगे तो एक अलग तरह का सुख उत्पन्न होता है। जो साथ में रहने का सुख होता है और साथ में रहने का कार्य है जो समाज का कार्य है, देश का कार्य है वही कार्य व्यक्ति को खुशी देता है। आज लोग समझते हैं कि अच्छा घर मिल गया, अच्छी गाड़ी मिल गई, सुंदर पत्नी मिल गई, अच्छा भोजन मिल गया यही सुख है लेकिन इससे परे सोचने की आवश्यकता है। यह सोचना है कि हमें कुछ त्याग के बाद ही मिलेगा। हमने जो समाज बनाया है हमने जो मित्र बनाए हैं हमने जो त्योहार बनाए हैं हमने जो सभ्यता बनाई है हमने जो संस्कृति बनाई है जब हम उसके अंदर घुसेंगे तब यह प्रवृत्ति कम होगी। और अगर हमने इस बात से आगे बढ़कर इस बात को भी समझ लिया कि हम तो निमित्त मात्र हैं इस संसार में एक छोटे समय के लिए आए हैं फिर जाना है फिर आएंगे।

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27 March 2023, 06:48 PM IST

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