ॐ लोक आश्रम: लोग आत्महत्या जैसा कदम क्यों उठाते हैं? भाग-6
हमने विकास को गलत ढंग से परिभाषित कर लिया है। हमने आर्थिक प्रगति को विकास कह दिया। इस बात को हमारे ऋषियों ने बहुत पहले देख लिया था कि केवल आर्थिक प्रगति या वैज्ञानिक प्रगति, तकनीकी प्रगति ही विकास नहीं है।
हमने विकास को गलत ढंग से परिभाषित कर लिया है। हमने आर्थिक प्रगति को विकास कह दिया। इस बात को हमारे ऋषियों ने बहुत पहले देख लिया था कि केवल आर्थिक प्रगति या वैज्ञानिक प्रगति, तकनीकी प्रगति ही विकास नहीं है। मानवीय मूल्यों का बना रहना विकास का सबसे बड़ा लक्षण है। इसलिए सर्वोत्तम युग सतयुग माना गया।
जहां व्यक्ति सत्य ही आचरण करता था सत्य के अलावा आचरण नहीं करता था। आज आप किसी भी जानवरो को देखें, पेड़-पौधों को देखें, नदी-नालों को देखें तो इनका आचरण इनकी प्रवृत्ति के अनुरूप है। ये फर्जी काम नहीं करते, ये झूठ नहीं बोलते ये किसी को धोखा नहीं देते लेकिन मानव ने विकास के फलस्वरूप ऐसी परिस्थितियां निर्मित कर ली हैं कि व्यक्ति धोखा देने लगा है झूठ बोलने लगा है, अपने मां-बाप को घर में नहीं रखता, वृद्धाश्रम जैसी चीजें खुल गई हैं। मानव अपने विकास के कारण ऐसे मानसिक जालों में फंस गया है जिससे निकलने का उसके पास कोई उपाय नहीं दिखता और इन्हीं जालों का परिणाम है अवसाद।
इन्हीं जालों का परिणाम है आत्महत्या। सबसे पहले ये समझना होगा कि विकास आर्थिक विकास नहीं है, विकास वैज्ञानिक विकास नहीं है। विकास का सबसे बड़ा आयाम है सद्गुणों का विकास। हमारे अंदर क्यो वह मूल्य बचे हुए हैं क्या हम उन मूल्यों को स्थानांतरित कर पा रहे हैं। हम विकास की दौड़ में इतने अंधे हो जाते हैं कि हम चाहते हैं कि किसी भी कीमत पर किसी भी तरह बस पैसा मिल जाए। किसी भी तरह किसी भी कीमत पर बस नाम मिल जाए। किसी भी तरह किसी भी कीमत पर सुख-सुविधाएं मिल जाएं। इनका क्या मूल्य दे रहे हैं हम इनका मूल्य ये देते हैं कि हम अपनी चेतना को नष्ट कर देते हैं। हम अपने अंदर के सत्य को मार देते हैं। हम अपनी अन्तर्रात्मा को मार देते हैं। हम उसके लिए नशा का इस्तेमाल करते हैं हम उसके लिए सेक्स का इस्तेमाल करते हैं। अपनी प्रवृत्तियों को निम्मतम स्तर पर गिरा देते हैं और हम अपने आप को भूलने का प्रयास करते हैं। कोशिश होती है कि हमारी अन्तर्रात्मा हमें कभी न टोके।
जब हम अपनी अन्तर्रात्मा को मारते जाते हैं तो हमारी अन्तर्रात्मा सो जाती है। वो हमें टोकना बंद कर देती है और स्वतंत्र महसूस करते हैं अपने आप को। हम काम करते जाते हैं हमें कभी भी गलती का अहसास नहीं होता है कि हम कुछ गलत कर रहे हैं और हम आगे चलते जाते हैं। अब समस्या आती है परिणाम की। हमें इच्छानुकूल परिणाम नहीं मिलते। हम जीवन में असफल होने लगते हैं और हमारे अंदर नकारात्मक प्रवृत्ति आने लगती है। हमें ये विचार करने की आवश्यकता है कि जीवन का उद्देश्य क्या है, मूल्य क्यों जरूरी है, धर्म क्यों जरूरी है। ईश्वर क्यों जरूरी है।
ईश्वर कोई पूजा का भूखा नहीं है कि अगर आप ईश्वर की पूजा करोगे तो ईश्वर प्रसन्न हो जाएंगे और वो कुछ देंगे। ईश्वर की पूजा करना या उनकी निंदा करना। इन दोनों से ईश्वर के ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। आप उनकी पूजा कर रहे हो तो वो आप के अंदर सद्गुणों का विकास कर रही है। आप उनकी निंदा कर रहे हो तो आप के अंदर दुर्गुणों को विकास कर रही है। अगर आपने ईश्वर की डोर को पकड़ रखा है भक्ति के द्वारा। ईश्वर को पकड़ने का एक ही उपाय है वो है प्रभु की भक्ति। उनमें आस्था भाव होना। आपके अंदर आस्था है आपके अंदर भक्ति है तो न तो कभी आपके अंदर अवसाद आ सकता है न तो कभी आपके अंदर नकारात्मकता आ सकती है और आत्महत्या जैसी बात तो आपको छू ही नहीं सकती।