142 साल पहले सिर्फ 20 हजार रुपये में हुआ था महाकुंभ मेले का आयोजन, अब होगा इतना खर्च, जानकर चौंक जाएंगे आप
प्रयागराज में महाकुंभ के आयोजन की तैयारियां तेज हो गईं हैं. इस आयोजन को लेकर उत्तर प्रदेश की सरकार कोई कसर बाकी नहीं रखना चाहती. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को केंद्र का भी सहयोग मिल रहा है.
उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में महाकुंभ 2025 की तैयारियों को अंतिम रूप दिया जा रहा है. 13 जनवरी से लेकर 26 फरवरी करीब डेढ़ महीने चलने वाले महाकुंभ मेले में करोड़ों श्रद्धालु संगम में डुबकी लगाएंगे. 142 सालों से संगम किनारे महाकुंभ मेले का आयोजन किया जा रहा और 142 वर्षों में महाकुंभ आयोजन कई मायनों में बहुत बदल गया है. वर्ष 1882 महाकुंभ मेले का पहली बार आयोजन किया गया. तब इस मेले के आयोजन में 20.2 हजार रुपये खर्च हुए थे. महाकुंभ मेला 2025 की तैयारियों के बीच इस महाआयोजन का जो बजट निकल कर सामने आ रहा है, वह करीब 7500 करोड़ रुपये है. दरअसल, प्रयागराज में अब तक के सबसे बड़े महाकुंभ के मेजबानी की तैयारी चल रही है. इस महाआयोजन में 40 करोड़ श्रद्धालुओं के आने की उम्मीद है.
सरकार को हुआ था 29,612 रुपए का लाभ
प्रयागराज (पूर्व में इलाहाबाद) के क्षेत्रीय अभिलेखागार में रखे एक दस्तावेज से यह चौंकाने वाला तथ्य सामने आया है. इस दस्तावेज में कुंभ मेले के लाभ और खर्च के बीच के संबंधों को विस्तार से बताया गया है. 1882 में हुए कुंभ मेले से जुड़े आंकड़े दर्शाते हैं कि उस समय मेले के आयोजन पर 20,228 रुपये खर्च हुए थे, जबकि सरकार ने कुल 49,840 रुपए की आमदनी की थी. इस धन को राजकोष में जमा कर लिया गया, जिससे सरकार को 29,612 रुपए का लाभ हुआ.
1882 में 8 लाख लोगों ने किया था स्नान
आंकड़ों से पता चलता है कि 1882 के महाकुंभ के दौरान मौनी अमावस्या पर लगभग 8 लाख लोगों ने स्नान किया था. वह सबसे बड़ा स्नान दिवस था. उस समय एकीकृत भारत की आबादी 22.5 करोड़ थी. इस आयोजन पर खर्च 20,288 रुपये (वर्तमान मूल्य के हिसाब से 3.65 करोड़ रुपये के बराबर) हुए थे. 1894 के आयोजन में 23 करोड़ की आबादी में से लगभग 10 लाख श्रद्धालुओं ने स्नान पर्व में भाग लिया था. इस आयोजन पर 69,427 रुपये (वर्तमान मूल्य में लगभग 10.5 करोड़ रुपये) खर्च हुए थे.
1906 के कुंभ में करीब 25 लाख लोग शामिल हुए थे और उस पर 90,000 रुपये (वर्तमान में 13.5 करोड़ रुपये) खर्च हुए थे. उस समय देश की आबादी 24 करोड़ थी. इसी तरह, 1918 के महाकुंभ में करीब 30 लाख लोगों ने संगम में पवित्र डुबकी लगाई थी, जबकि उस समय की आबादी 25.20 करोड़ थी. प्रशासन ने 1.37 लाख रुपये (आज के हिसाब से 16.44 करोड़ रुपये) आयोजन के लिए आवंटित किए थे. दस्तावेजों में ब्रिटिश सरकार की ओर से किए गए प्रबंधों का पूरा ब्यौरा भी है.
1942 का महाकुंभ था खास
इन दस्तावेजों से यह साफ होता है कि कुंभ मेला कभी अंग्रेजों के लिए सिर्फ एक धार्मिक आयोजन नहीं, बल्कि एक राजस्व का स्रोत भी था. एक ओर दिलचस्प किस्सा 1942 के कुंभ से जुड़ा है, जब भारत के वायसराय जनरल लॉर्ड लिनलिथगो, पंडित मदनमोहन मालवीय के साथ कुंभ मेले का मुआयना करने पहुंचे. उन्होंने देखा कि लाखों लोग अलग-अलग वेशभूषा में त्रिवेणी स्नान और भजन-पूजन कर रहे थे. यह दृश्य उन्हें हैरान कर गया और उन्होंने मालवीय जी से पूछा, “इस प्रचार पर कितना खर्च होता है?”
मालवीय जी ने हंसते हुए जवाब दिया, “केवल दो पैसे.” वायसराय चौंक गए और पूछा, “दो पैसे में यह कैसे संभव है?” मालवीय जी ने अपनी जेब से पंचांग निकाला और कहा, “इस पंचांग के माध्यम से लोग यह जान जाते हैं कि कौन-सा पर्व कब है, और स्वयं श्रद्धा से तीर्थयात्रा पर निकल पड़ते हैं.
यह जवाब सुनकर वायसराय न केवल हैरान हुए, बल्कि कुंभ मेला और उसके श्रद्धालुओं के प्रति अपनी निष्ठा को स्वीकार किया. कुंभ के बारे में ये बातें बताती हैं कि एक ओर कुंभ मेला धार्मिक विश्वास का प्रतीक है, वहीं दूसरी ओर यह इतिहास में समाज व्यवस्था की रोचक जानकारी भी है.
महामना ने की थी व्याख्या
इतिहासकार प्रो. तिवारी ने कहा कि महामना पंडित मदन मोहन मालवीय ने स्पष्ट किया, पंचांग देश भर के श्रद्धालुओं को त्योहारों की तिथियों के बारे में बताता है. हिंदू परंपरा ने प्रत्येक त्योहार के महत्व और स्थान के बारे में जागरूकता सुनिश्चित की, जिससे औपचारिक प्रचार या निमंत्रण के बिना ही तीर्थयात्री स्वाभाविक रूप से आकर्षित होते हैं.
महामना ने वायसराय से कहा कि यह कोई भीड़ नहीं है. यह धर्म और ईश्वर में अटूट आस्था रखने वाले श्रद्धालुओं का संगम है. इससे श्रद्धालुओं में भक्ति का संचार होता है. इस स्पष्टीकरण से प्रभावित होकर वायसराय ने कुंभ श्रद्धालुओं के प्रति सम्मान दिखाया.