Muharram: जंग-ए-कर्बला की दिलसोज़ दास्ताँ; जहां यज़ीद ने हज़रत हुसैन और 6 महीने के बच्चे समेत 72 लोगों को किया शहीद

Muharram 2023: मुहर्रम का महीना मुसलमानों के लिए बेहद अहम है. हालाँकि यह इस्लामी साल का पहला महीना है लेकिन सभी मुसलमानों को मुहर्रम कई अहम सब सिखाकर जाता है. पढ़िए पूरी स्टोरी

Tahir Kamran
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हाइलाइट

  • कौन थे हज़रत इमाम हुसैन?
  • क्या होते हैं ख़लीफ़ा?
  • यज़ीद और हुसैन की दुश्मनी
  • 6 माह के बच्चे को किया शहीद
  • शिया और सुन्नी कौन हैं?

Jang E Karbala: इस्लामी कैलेंडर के हिसाब से साल के पहले महीने का नाम मुहर्रम होता है. इसी कैलेंडर को हिजरी कैलेंडर भी कहा जाता है. इस्लामी मान्यताओं के मुताबिक़, मुहर्रम का महीना रमज़ान के बाद सबसे अहम माना जाता है. क्योंकि इस महीने में कई ऐसी घटनाएँ हुईं हैं जिन्हें याद कर मुसलमान आज भी काँप उठते हैं. इसमें सबसे बड़ी घटना जंग-ए-कर्बला है. इस जंग में हज़रत इमाम हुसैन समेत उनके 71 साथियों को शहीद कर दिया गया था. यहाँ तक कि उनके 6 महीने के बेटे के गले को जानवरों का शिकार करने वाले तीर से चीर दिया गया था. 

कौन थे हज़रत इमाम हुसैन:

हज़रत इमाम हुसैन आख़िरी पैगंबर हज़रत मोहम्मद साहब (स.) के नाती थे. पैगंबर मोहम्मद साहब की बेटी फ़ातिमा और उनके शौहर हज़रत अली के बेटे थे. हज़रत अली को शेर-ए-ख़ुदा के नाम से भी जाना जाता है. क्योंकि उनकी बहादुरी के अनगिनत ऐसे क़िस्से हैं जो इस्लामी तारीख़ में बहुत कम देखने को मिलते हैं. 

मुसलमान ही मुसलमान के सामने:

अब अगर बात करें जंग-ए-कर्बला की तो यह बेहद दर्दनाक जंग थी. उस ज़माने में अक्सर जंगें एक दूसरे धर्म के ख़िलाफ़ ही हुआ करती थीं लेकिन यहाँ हैरानी की बात यह है कि इस जंग में दूसरी तरफ़ खड़ी फ़ौज भी मुसलमानों की ही थी. जंग के बारे में बताने से पहले थोड़ा उससे पहले की घटनाओं के बारे में जानना ज़रूरी है.

क्या होते हैं ख़लीफ़ा?

पैगंबर मोहम्मद साहब के बाद इस्लाम में ख़लीफ़ाओं का दौर हुआ करता था. ख़लीफ़ा का मतलब होता है जो पैगंबर मोहम्मद साहब का जानशीन हो. हालाँकि ख़लीफ़ा का काम लोगों पर हुकूमत करना नहीं था. सिर्फ़ अल्लाह और पैगंबर के हुक्म के मुताबिक़ लोगों का नेतृत्व करना हुआ करता था. पैगंबर मोहम्मद साहब के बाद 4 ख़लीफ़ा रहे हैं. जिनके नाम नीचे हैं.

1- हज़रत अबू बक्र : (632 से 634)

2- हज़रत उमर: (634 से 644)

3- हज़रत उस्मान: (644 से 656)

4- हज़रत अली: (656-661)

चौथे ख़लीफ़ा को लेकर विरोध:

इस्लाम के तीसरे ख़लीफ़ा हज़रत उस्मान के क़त्ल के बाद चौथे ख़लीफ़ा के तौर पर पैगंबर मोहम्मद साहब के दामाद हज़रत अली को चौथा ख़लीफ़ा ऐलान किया गया. लेकिन हज़रत अली को चौथा ख़लीफ़ा मानने से काफ़ी लोगों ने इनकार कर दिया था. इनकार करने वालों में ख़ुद हज़रत अली की सास यानी पैगंबर मोहम्मद साहब की बेवा पत्नी हज़रत आयशा का नाम भी बताया जाता है. उनका कहना था कि जिस तरह पहले आम लोगों की राय के बाद ख़लीफ़ाओं को चुना गया है, उसी तरह इस बार भी होना चाहिए. 

हज़रत हसन और मुआविया के बीच समझौता:

खैर हज़रत अली चौथे ख़लीफ़ा रहे और जब उनकी भी हत्या कर दी गई तो उनके बड़े बेटे हसन को उनका उत्तराधिकारी माना गया. लेकिन कहा जाता है कि हज़रत हसन ने खून ख़राबे और जंग से बचने के लिए इलाक़े के सरदार “मुआविया” से एक समझौता करते हुए सत्ता उसके हवाले कर दी. लेकिन 670 में हज़रत हसन के क़त्ल के 6 साल बाद मुआविया ने अपने बेटे यज़ीद को अपना उत्तराधिकारी ऐलान कर दिया.

यज़ीद और हुसैन की दुश्मनी:

मुआविया के ज़रिए अपने बेटे को सौंपी गई सत्ता का हज़रत हुसैन और उनके साथियों ने जमकर विरोध किया. क्योंकि हज़रत हसन और मुआविया के बीच हुए समझौते का उल्लंघन था. साथ ही यह भी वजह थी कि यज़ीद ज़ुल्म-ओ-सितम करने वाला और शराबी था. ऐसे में हज़रत हुसैन ने यज़ीद का समर्थन करने से इनकार कर दिया. जिससे हज़रत हुसैन और यज़ीद के दरमियान दुश्मनी की खाई और गहरी होती चली गई. 

हज़रत हुसैन को यज़ीद की फ़ौज ने घेरा:

हालाँकि यज़ीद ने हज़रत हुसैन तक अपना पैग़ाम भी भिजवाया और कहा कि वो उसका समर्थन करें. लेकिन हज़रत हुसैन अपनी बात पर क़ायम रहे और फिर से इनकार कर दिया. ऐसे में 9 सितंबर 680 को बकरीद यानी हज से महज़ एक दिन पहले हज़रत हुसैन अपने परिवारिक सदस्यों और साथियों के साथ मदीना जा रहे थे. इनमें बच्चे, बुजुर्ग और महिलाएँ भी शामिल थीं. इसी दौरान उन्हें यज़ीद की एक ताकतवर फ़ौज ने घेर लिया. 

बंद कर दिया था पानी:

हालाँकि इस दौरान हज़रत हुसैन ने यज़ीद के गवर्नर से उन्हें रास्ता देने की बात कही लेकिन यह कोशिश नाकाम साबित हुई. कहा जाता है कि हज़रत हुसैन यहाँ तपते रेगिस्तान में अपने साथियों के साथ कई दिनों तक भूखे-प्यासे रहे. साथ ही यज़ीद ने अपनी फ़ौज में भारी इज़ाफ़ा भी कर दिया था. इतना ही नहीं मुहर्रम की 7 तारीख़ को हजरत हुसैन और उनके साथियों का पानी तक भी बंद कर दिया था.

ह. हुसैन ने साथियों को दी जाने की इजाज़त:

जंग को बेहद क़रीब देखते हुए एक रात हज़रत हुसैन ने अपने तंबू की शम्मा (लाइट) बुझा दी और साथियों से कहा कि मैंने अंधेरा कर दिया और मैं बखुशी सभी को इजाज़त देता हूँ कि आप लोग यहाँ से चले जाइए. क्योंकि यज़ीद को मेरा सिर चाहिए, उसे मुझसे दिक़्क़त है और सामने खड़ी फ़ौज भी मेरे ही खून की प्यासी है, नाकि आप लोगों की. अगर आप लोग मेरे साथ लड़ते हैं तो फिर इन लोगों के हाथों में मौजूद तलवारें, नेज़े और तीरों से बचना बहुत मुश्किल है. ऐसे में आप लोग जा सकते हैं मुझे कोई शिकायत नहीं. 

हज़रत इमाम हुसैन ने इतना कहा और थोड़ी देर बाद शम्मा को फिर से जला दिया. रोशनी होने पर हज़रत हुसैन देखते हैं कि उनका एक भी साथी कहीं नहीं गया, सभी वहीं पर मौजूद थे. मुहर्रम का 10वां दिन था अब यज़ीद ने हज़रत हुसैन के साथियों को क़त्ल करना शुरू कर दिया था. शाम होते-होते हज़रत इमाम हुसैन के 71 साथियों को शहीद कर दिया गया. 

6 माह के बच्चे को किया शहीद:

शहीद होने वालों में 6 महीने का बच्चा भी शामिल था. जो बाक़ी लोगों की तरह काफ़ी वक़्त से भूखा-प्यासा था. हज़रत हुसैन उसको पानी पिलाना चाहते थे. वो यज़ीद की फ़ौज से गुहार लगा रहे थे कि तुम्हारी नज़र में हुसैन गुनहगार है लेकिन इस बच्चे ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है? इसको अगर कुछ बूँद पानी मिल जाएगा तो शायद इसकी ज़िंदगी बच जाएगी. लेकिन यज़ीद बेरहम था. उसने तुरंत बच्चे को मारने का हुक्म दिया. यज़ीद का हुक्म सुनते ही हुर्मला नाम के शख़्स के कमान से जानवरों का शिकार करने वाला तीर निकला, जो उस 6 महीने के मासूम के गले को चीरता हुआ हज़रत हुसैन के बाज़ू में जा गड़ा. 

तलवार, तीर और नेज़ों से किया छलनी:

हज़रत हुसैन के 71 साथियों की शहादत के बाद यज़ीद ने हुक्म दिया कि हुसैन की गर्दन काट दी जाए. बस फिर क्या था यज़ीद का हुक्म सुनते ही शिम्र नाम के शख़्स ने हज़रत हुसैन को उनकी बहन व बेटी के सामने क़त्ल कर दिया. इसके बाद यज़ीद की पूरी फ़ौज हज़रत हुसैन पर टूट पड़ी. मुस्लिम उलेमा बताते हैं कि हज़रत हुसैन के जिस्म को तलवार, तीर और नेज़ों से छलनी कर दिया गया था और उनकी बेटी व बहन को ऊँट पर बांधकर रवाना कर दिया था. 

10 मुहर्रम का रोज़ा: 

हज़रत हुसैन की इसी शहादत को याद करते हुए पूरी दुनिया के मुसलमान इस दिन रोज़ा भी रखते हैं. यहाँ तक कि शिया समुदाय के लोग मातम भी मनाते हैं. हालाँकि सुन्नी समुदाय इस संबंध में मातम को ठीक नहीं मानता. उनका कहना है कि हज़रत हुसैन सच्चाई के लिए शहीद हुए हैं. इसके अलावा इस्लाम ऐसे शहीदों पर फ़ख़्र करता है. सुन्नी धर्म गुरु इस दिन ताजिया बनाना, जुलूस निकालना, मातम करना और विशेष पकवान पकाने को भी सही नहीं मानते हैं. 

शिया और सुन्नी कौन हैं? 

दरअसल शिया सुन्नी उस वक़्त अलग-अलग गुटों में बंट गए थे जब हज़रत अली को चौथा ख़ालीफा माना गया था. जैसा कि हमने ऊपर बताया है कि पैगंबर मोहम्मद साहब की बेवा पत्नी हज़रत आयशा समेत बहुत से लोगों ने हज़रत अली को चौथा ख़लीफ़ा मानने से इनकार कर दिया था. इसी घटना के बाद से मुसलमान दो गुटों में बंट गए थे. जो लोग हज़रत अली को ख़लीफ़ा बनाना चाहते थे उन्हें शिया कहा जाता है और जो इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ थे उन्हें सुन्नी कहा जाता है.

 

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28 July 2023, 03:36 PM IST

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