ॐ लोक आश्रम: हम असफल क्यों होते हैं? भाग-3
ॐ लोक आश्रम: संसार में हर व्यक्ति सुखी रहना चाहता है। सुख प्राप्त करना चाहता है। हम जो भी समाज में काम करते हैं, मेहनत करते हैं, हमारा उद्देश्य होता है कि हम ज्यादा से ज्यादा सुखी हों, ज्यादा से ज्यादा संपन्न हों। लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता। हमारे प्रयत्न बहुत बार असफल हो जाते हैं।
हम सबकुछ अपनी प्रतिष्ठा के लिए करने लगते हैं, हम सबकुछ पैसे के लिए करने लगते हैं हम किसी को खुश करने के लिए किसी को दुखी करने के लिए अपने काम को करने लगते हैं। हम मोह से व्याकुल होकर काम करने लगते हैं तो उसके बाद हमें जो परिणाम मिलते हैं वो परिणाम इतने भारी होते हैं कि हम उनका वजन नहीं उठा पाते उसी तरह जिस तरह वो बेचारा शिष्य उस माणिक्य का वजन नहीं उठा पा रहा था। उसी तरह ये भारी हो जाते हैं क्योंकि हमें चिंता रहती है कि कहीं ये छिन न जाए। जिस तरह हमने साम दंड और भेद से इस सफलता को प्राप्त किया है कहीं कोई दूसरा पराजित कर इसे न छीन ले।
यही वजह है कि राजनेता काफी असुरक्षित महसूस करते हैं। असुरक्षा वहीं आती है जब आप किसी भी तरह से सफलता छीन लेते हो, सफलता पा लेते हो, सफलता ही आपका लक्ष्य होती है। वो सफलता जबतक आपके पास रहती है तबतक वो आपको असुरक्षा का अहसास कराती है। बड़ा बोझ देती है आप किसी तरह से उसे संभालकर रखते हो और जब वो सफलता आपके हाथ से दूसरे के पास चली जाती है तब वो आपको अवसाद में डाल देती है। आप बहुत दुखी हो जाते हो। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि जो व्यक्ति राग और द्वेष इन दोनों से मुक्त हो जाता है और विषयों के अधीन नहीं होता, अपनी इन्द्रियों को समेट लेता है और निष्काम भाव से कर्म करता जाता है वहीं सुखी रहता है वही प्रसन्न रहता है।
सुखों की प्राप्ति का एकमात्र मार्ग ये है कि अपने आप को परिणामों से किनारे कर लिया जाए, आप कर्म परिणामों के लिए मत कीजिए, आप कर्म किसी को खुश या फिर किसी को दुखी करने के लिए मत कीजिए। कर्म आप कीजिए क्योंकि आपका उत्तरदायित्व है, आप पढ़िए क्योंकि आप छात्र हैं, आप लड़िए क्योंकि आप योद्धा हैं, आप खेलिए क्योंकि आप खिलाड़ी हैं, आप दफ्तर में काम कीजिए क्योंकि आप कर्मचारी हैं, आप प्रेम कीजिए पुत्र को क्योंकि आप पिता हैं।
इसी तरह हर जगह अपने उत्तरदायित्व का पालन कीजिए। देखेंगे कि ये जो सुख है ये अपने कर्तव्यों का एक उत्पाद है जैसे तिलों को अगर आप पेरोगे तो तेल अपने आप निकलेगा लेकिन अगर तेल के प्रति इतना लालच होगा इतनी आसक्ति होगी कि आप तिलों को ही पेरना भूल जाओगे, तिलों से ही ध्यान आपका गायब हो जाएगा, आप कर्म पर ही नहीं रह जाओगे। जब आप कर्म पर ही नहीं रहोगे तो निश्चित रूप से परिणाम आपके हाथ से निकल जाएगा। भगवान कृष्ण ने गीता ने इसी बात का उपदेश दिया है, यही बात बताया है कि आप इस तरह से राग और द्वेष से मुक्त होकर कर्म करो, अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करो आप कर्म करते जाओगे और सफलता आपका अनुकरण करते जाएगी।
आप अगर सफलता का अनुकरण करते जाओगे तो सफलता आपसे उतनी ही दूर होती चली जाएगी। सफलता के पीछे भागने से उतनी ही गति से वो और आगे भागती जाती है। लेकिन अगर आप अपना कर्म करते जाओ तो सफलता बिल्कुल सफलता आपके पीछे-पीछे आती जाती है और आपसे कहीं दूर नहीं जाती और जो उससे अलद तरह का सुख मिलता है। इस तरह आपका चित्त प्रसादमय हो जाता है, किसी को खुश करने या किसी को दुखी करने के लिए काम नहीं करते हो तो चित्त में आपके जो प्रसन्नता आती है वो आपके सारे दुखों को नष्ट कर देती है और आपके चित्त में एक ओज आ जाता है आपके चेहरे पर एक कांति आती है, एक आभा आती है, आपके अंदर एक आत्मविश्वास आता है जो कि आपको जीवन में सफलता देता है।