सिर्फ बेटे ही क्यों देते हैं मुखाग्नि? शास्त्रों में छिपा है गहरा रहस्य
सनातन धर्म में मान्यता है कि अंतिम संस्कार के दौरान उत्पन्न ऊर्जा बहुत तीव्र और अशांत होती है, जिसे संभालना कठिन होता है. महिलाओं को भावनात्मक रूप से अधिक संवेदनशील माना जाता है, इसलिए उन्हें श्मशान घाट जाने या मुखाग्नि देने से दूर रखा जाता है. यह परंपरा सुरक्षा और मानसिक संतुलन को ध्यान में रखकर बनाई गई थी, न कि भेदभाव के लिए.

हिंदू धर्म में जब किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है तो उसके अंतिम संस्कार की पूरी जिम्मेदारी परिवार के बेटे या पुरुष सदस्य पर होती है. परंपरा के अनुसार, मुखाग्नि यानी मृत शरीर को अग्नि देने का कार्य पुत्र करता है. यह परंपरा सदियों से चली आ रही है, लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि केवल लड़के ही यह कर्म क्यों करते हैं? शास्त्रों में इसके पीछे कई धार्मिक और आध्यात्मिक कारण बताए गए हैं.
हिंदू धर्मग्रंथों में 'पुत्र' शब्द का विशेष महत्व है. संस्कृत में 'पुत्र' का अर्थ होता है – “पुनर्नरकात् त्रायते इति पुत्रः” यानी जो अपने पिता को नरक से बचाए, वह पुत्र कहलाता है. शास्त्रों में ऐसा माना जाता है कि पुत्र यदि विधिपूर्वक अंतिम संस्कार करता है और श्राद्ध आदि कर्म करता है, तो मृतात्मा को स्वर्ग की प्राप्ति होती है और उसका मोक्ष सुनिश्चित होता है.
पितृ ऋण की पूर्ति
हिंदू दर्शन में हर इंसान को तीन ऋण बताए गए हैं – देव ऋण, ऋषि ऋण और पितृ ऋण. पितृ ऋण यानी अपने पूर्वजों का ऋण चुकाने के लिए व्यक्ति को संतान उत्पन्न करनी होती है और उनकी आत्मा की शांति के लिए श्राद्ध, तर्पण और अंतिम संस्कार जैसे कर्म करने होते हैं. यह दायित्व मुख्यतः पुत्र पर ही माना गया है.
मुखाग्नि देने का महत्व
अंतिम संस्कार के समय जब मृत देह को अग्नि दी जाती है, तो माना जाता है कि उसी क्षण आत्मा शरीर से पूरी तरह मुक्त होकर अपने अगले गंतव्य की ओर प्रस्थान करती है. यह अग्नि देने का कार्य बेहद पवित्र और भावनात्मक होता है, जिसे करने का अधिकार पुत्र को दिया गया है. यह क्रिया प्रतीक है कि संतान ने अपने कर्तव्य को पूर्ण कर दिया है.
क्या बेटियां नहीं कर सकतीं अंतिम संस्कार?
हालांकि आधुनिक समय में यह धारणा बदल रही है. कई जगहों पर बेटियां भी अपने माता-पिता का अंतिम संस्कार कर रही हैं. धार्मिक रूप से शास्त्रों में कहीं स्पष्ट निषेध नहीं है कि बेटियां अंतिम संस्कार नहीं कर सकतीं. यह सिर्फ परंपरा का हिस्सा है, न कि कोई कठोर नियम. समाज में बदलाव के साथ यह सोच भी धीरे-धीरे बदल रही है.
अंतिम संस्कार करना एक धार्मिक कर्तव्य
शास्त्रों के अनुसार पुत्र का अंतिम संस्कार करना एक धार्मिक कर्तव्य माना गया है, लेकिन समय के साथ बेटियों की भूमिका भी बदल रही है. आखिर श्रद्धा, प्रेम और कर्तव्य की भावना किसी एक लिंग तक सीमित नहीं होती.