मजरूह के शेर
मुझे ये फ़िक्र सब की प्यास अपनी प्यास है साक़ी,
तुझे ये ज़िद कि ख़ाली है मिरा पैमाना बरसों से.
मजरूह के शेर
तुझे न माने कोई तुझ को इस से क्या मजरूह,
चल अपनी राह भटकने दे नुक्ता-चीनों को.
मजरूह के शेर
सर पर हवा-ए-ज़ुल्म चले सौ जतन के साथ,
अपनी कुलाह कज है उसी बाँकपन के साथ.
मजरूह के शेर
जला के मिशअल-ए-जाँ हम जुनूँ-सिफ़ात चले,
जो घर को आग लगाए हमारे साथ चले.
मजरूह के शेर
वो आ रहे हैं सँभल सँभल कर नज़ारा बे-ख़ुद फ़ज़ा जवाँ है,
झुकी झुकी हैं नशीली आँखें रुका रुका दौर-ए-आसमाँ है.
मजरूह के शेर
फ़रेब-ए-साक़ी-ए-महफ़िल न पूछिए 'मजरूह',
शराब एक है बदले हुए हैं पैमाने.
मजरूह के शेर
सैर-ए-साहिल कर चुके ऐ मौज-ए-साहिल सर न मार,
तुझ से क्या बहलेंगे तूफ़ानों के बहलाए हुए.
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