रेलवे की ज़मीनों पर अब नहीं होंगे कब्जे, इस बात की गारंटी कौन लेगा?
हल्द्वानी में रेलवे की ज़मीन पर बुलडोजर चलाकर ज़मीन को खाली कराने के हाईकोर्ट के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने स्टे लगा दिया है।अदालत ने कहा कि 7 दिन में ये काम संभव नहीं है।इसे मामले को इंसानियत के लिहाज से देखने की ज़रूरत है क्योंकि ये लोग बहुत समय से यहां रह रहे हैं।
हल्द्वानी में रेलवे की ज़मीन पर बुलडोजर चलाकर ज़मीन को खाली कराने के हाईकोर्ट के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने स्टे लगा दिया है।अदालत ने कहा कि 7 दिन में ये काम संभव नहीं है।इस मामले को इंसानियत के लिहाज से देखने की ज़रूरत है क्योंकि ये लोग बहुत समय से यहां रह रहे हैं। इन लोगों के पुनर्वास के बारे में सोचा जाना चाहिए। इस केस में सर्वोच्च अदालत ने टिप्पणी करते राज्य की पुष्कर धामी सरकार को नोटिस भेजकर जवाब मांगा है।अदालत की टिप्पणी से फौरी तौर पर अतिक्रमणकारियों को राहत तो मिल गयी है ,लेकिन खतरा टला नहीं है।
भारत में रेलवे की जमीनों पर कब्जे होना कोई नयी बात नहीं है।इस बारे में इस वक्त चर्चा इसलिए हो रही है कि उत्तराखंड के द्वार कहे जाने वाले हल्द्वानी में रेलवे की जमीन पर कब्जे का केस सुप्रीम कोर्ट में चल रहा है।इससे पहले उत्तराखंड के नैनीताल हाईकोर्ट ने हल्द्वानी में रेलवे की 29 एकड़ जमीन पर अवैध कब्जे को गिराने का आदेश दिया था। इस आदेश के बाद करीब 4 हजार से अधिक कच्चे-पक्के मकानों को तोड़ा जाएगा। स्थानीय लोगों के मुताबिक कोर्ट के आदेश के बाद इस सर्द मौसम में 50 हजार से ज्यादा लोगों आशियाने उजड़ने का खतरा मंडरा रहा है।
ये मामला काफी लंबे समय से चल रहा है।आज हल्द्वानी ही नहीं बल्कि राजधानी दिल्ली में भी रेलवे की जमीनों पर कब्जे हो चुके हैं।यहां भी सुप्रीम कोर्ट ने इन कब्जों को हटाने का आदेश दिया था लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ।रेलवे की जमीनों पर कब्जे के लिए ना सिर्फ हमारे नेता बल्कि खुद रेलवे विभाग जिम्मेदार है।यकीन ना हो तो कभी आप ट्रेन में सफर करते वक्त खुद देखिएगा कि रेलवे ट्रैक के आसपास किस प्रकार बड़ी तादाद में झुग्गी बस्तियां आबाद हैं।ये लोग ज्यादातर मुस्लिम हैं और इनमें रोहिंग्या मुसलमान और बांग्लादेशी रहते हैं।
सवाल ये है कि जब रेलवे की जमीनों पर अवैध कब्जे होते हैं उस वक्त रेलवे के जिम्मेदार अफसरों की निगाह इस ओर क्यों नहीं जाती।तब तो ये लोग सब-कुछ जानकर भी खामोश रहते हैं। अभी भी ये कार्रवाई कोर्ट के आदेश पर हो रही है।रेलवे के भ्रष्ट अधिकारी तो अब भी कुंडली मारकर बैठे हैं।आपको हैरत होगी कि रेलवे की जमीन पर इस पैमाने पर अतिक्रमण सिर्फ भारत में ही संभव है या सिर्फ तीसरी दुनिया के देशों में ही ये नज़ारे देखने को मिलते हैं जिन्हें हम विकासशील देश कहते हैं।
अगर आप यूरोप के किसी हिस्से में जाएं तो आपको रेलवे की जमीनों के आसपास ऐसा कुछ नहीं दिखेगा।प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल 15 अगस्त को लालकिले से अपने जो तकरीर की थी उसमें कहा था कि हम 2047 तक विकसित देशों की श्रेणी में शामिल हो जाएंगे पर क्या आपको लगता है कि ये इतनी आसानी से संभव हो सकेगा।वह तब जबकि भूख और गुरबत के मामले में हम बांग्लादेश हमसे बेहतर स्थिति में है।
जहां तक रेलवे की जमीनों पर कब्जे का प्रश्न है तो सरकार संसद में खुद ही बता चुकी है कि रेलवे की 871.45 हेक्टेयर भूमि पर अलग-अलग वजहों से मुकदमा चल रहा है, वहीं 814.55 हेक्टेयर भूमि पर अतिक्रमण हो चुका है।तत्कालीन रेलवे मंत्री पीयूष गोयल ने राज्यसभा में एक सवाल के लिखित जवाब में यह जानकारी दी थी। ताजा आंकड़ों के मुताबिक, भारतीय रेलवे के पास कुल 4.81 लाख हेक्टेयर जमीन है जिसमें 814.55 हेक्टेयर भूमि पर अतिक्रमण है, वहीं करीब 871.45 हेक्टेयर भूमि पर मुकदमा चल रहा है।
ये हालात बताते हैं कि रेलवे खुद अपनी जमीन कि हिफाजत नहीं कर पाया और उसके अधिकारी तब नींद में खर्राटे भर रहे थे।अगर मानवीय आधार पर देखा जाए तो तो किसी का घर नहीं टूटना चाहिए लेकिन हमारे देश में कानून का राज है।हर काम कानूनसम्मत तरीके से किया जाता है तो ऐसे में अगर कानूनी नजरिए से देखा जाए तो सरकारी जमीन खाली कराई जानी चाहिए।
रेलवे की जमीन पर ये अवैध कब्जे कोई आज से नहीं है,ये उत्तराखंड बनने के बाद भी नहीं हुए बल्कि ये तब से हैं जब उत्तराखंड अलग राज्य नहीं बना था और वह उत्तर प्रदेश का ही हिस्सा था।सच कहें तो वोटों की राजनीति ने देश का बंटाधार किया है।अपनी राजनीतिक फसल उगाने और उसे वोटों में तब्दील करने के चक्कर में राजनेताओं ने ये काम होने दिया।उनसे वोट भी हासिल किए।
अलग उत्तराखंड राज्य के गठन का लाभ चंद माफियाओं और सियासतदानों को हुआ जिन्होंने सियासत की आड़ में लूट-खसोट का साम्राज्य खड़ा किया।लेकिन जब रेलवे की जमीन पर कब्जे हो गये तो यहां भी राजनीति हो रही है।आपने देखा होगा कि बीएसपी और समाजवादी पार्टी ने कब्जेदारों की हिमायत में परचम उठा लिया है।कांग्रेस भी अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रही है।असल में जमीनों पर कब्जे के खेल में सभी सियासी जमातों ने अपना -अपना हिस्सा डाला है चाहे वह कभी एनडी तिवारी की सरकार रही हो या बीजेपी के शासन में रमेश पोखरियाल का कार्यकाल रहा हो।किसी भी राजनीतिक दल को क्लीन चिट नहीं दी जा सकती।सवाल ये है कि अगर इन चार हजार परिवारों को यहां से हटाया भी जाता है तो आगे ये कब्जे नहीं होंगे,इस बात की गारंटी कौन लेगा?आज यही बात सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायाधीश ने भी कही है कि सरकार सुनिश्चित करे कि आइंदा रेलवे की जमीनों पर कब्जे ना होने पाएं।
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